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________________ दर्शनशास्त्र के अध्यापन ____एक ओर प्रबुद्ध वर्ग का आग्रह था कि दर्शन जैसे विषय में प्रथम श्रेणी एवं प्रथम स्थान में स्नातकोत्तर परीक्षा पास करके भी व्यावसायिक कार्यों से जुड़े रहना यह प्रतिभा का सम्यक उपयोग नहीं है, तो दूसरी ओर पारिवारिक परिस्थितियाँ और दायित्व व्यवसाय के क्षेत्र का परित्याग करने में बाधक थे। वस्तुतः सरस्वती और लक्ष्मी की उपासना में से किसी एक के चयन का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। यह आपके जीवन का निर्णायक मोड था। स्वर्ण नियन्त्रण कानून लागू होना आदि कुछ बाह्य परिस्थितियों ने भी जीवन के इस निर्णायक मोड़ पर आपको एक दूसरा ही निर्णय लेने को प्रेरित किया। फिर भी लगभग 50 वर्षों से सुस्थापित तथा अपने पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठित उस व्यावसायिक प्रतिष्ठान को एकाएक बन्द कर देना न सम्भव ही था और न ही परिवार के हित में। यह भी संयोग था कि सन् 1964 के मध्य में म.प्र. शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याताओं के कुछ पदों के लिए चयन की अधिसूचना प्रसारित हुई। जब आपको उस विज्ञापन की जानकारी हुई तो आपने भी सहज रूप से एक आवेदन पत्र प्रस्तुत कर दिया। आवेदन पत्र पहुँचने के कुछ समय पश्चात् ही आपको म.प्र. शासन की ओर से दर्शनशास्त्र के व्याख्याता पद पर नियुक्ति का आदेश प्राप्त हुआ। आपने सोचा भी नहीं था कि यह सब इतने सहज रूप में हो जायेगा। अब यह निर्णय की घड़ी थी। एक ओर माता-पिता और परिजन व्यवसाय से जुड़े रहने का आग्रह करते थे तो दूसरी ओर अन्तर में छिपी ज्ञानार्जन की ललक व्यवसाय से निवृत्ति लेकर विद्या की उपासना हेतु प्रेरित कर रही थी। आपके भाई कैलाश, जो उस समय उज्जैन विक्रम विश्वविद्यालय में एम.काम. के अन्तिम वर्ष में थे, उससे आपने विचार-विमर्श किया और उसके द्वारा आश्वस्त किये जाने पर आपने दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में शासकीय सेवा स्वीकार करने का निर्णय ले लिया। फिर भी पिताजी का स्वास्थ्य और व्यवसाय का विस्तृत आकार ऐसा नहीं था कि आपकी अनुपस्थिति में केवल पिताजी उसे सम्भाल सकें, ये अन्तर्द्वन्द्व के कठिन क्षण थे। लक्ष्मी और सरस्वती की उपासना के इस द्वन्द्र में अन्ततोगत्वा सरस्वती की विजय हुई और दुकान पर दो मुनीमों की व्यवस्था करके आप शासकीय सेवा के लिए चल दिये। आपकी प्रथम नियुक्ति महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में हुई। संयोग से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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