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प्रो. सागरमल जैन
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यदि हम बन्धन के कारणों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें, तो यह पाते हैं कि प्रारम्भ में ममत्व (मेरेपन ) को बन्धन का कारण माना गया, फिर आत्मविस्मृति या प्रमाद को । जब प्रमाद की व्याख्या का प्रश्न आया, तो स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष की उपस्थिति ही प्रमाद है । अतः राग-द्वेष को बन्धन का कारण बताया गया। राग-द्वेष का कारण मोह माना गया, अतः उत्तराध्ययन में राग-द्वेष एवं मोह को बन्धन का कारण बताया गया है । इनमें मोह मिथ्यात्व और कषाय का संयुक्त रूप है। प्रमाद के साथ इनमें अविरति एवं योग के जुड़ने पर जैन परम्परा में बन्धन के 5 कारण माने जाने लगे । समयसार आदि में प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानकर बन्धन के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। इनमें योग बन्धनकारक होते भी वस्तुतः जब तक कषाय के साथ युक्त नहीं होता है, बन्धन का कारण नहीं बनता है । अतः प्राचीन ग्रन्थों में बन्धन के कारणों की चर्चा में मुख्य रूप से राग-द्वेष (कषाय) एवं मोह ( मिथ्यादृष्टि ) की ही चर्चा हुई है।
जैन कर्मसिद्धान्त के इतिहास की दृष्टि से कर्मप्रकृतियों का विवेचन भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कर्म की अष्ट मूलप्रकृतियों का सर्व प्रथम निर्देश हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध होता है 11 । इसमें 8 प्रकार की कर्मग्रन्थियों का उल्लेख है । यद्यपि वहाँ इनके नामों की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। 8 प्रकार की कर्मप्रकृतियों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हमें उत्तराध्ययन के 33वें अध्याय में और स्थानांग में मिलता है। 12 स्थानांग की अपेक्षा भी उत्तराध्ययन में यह वर्णन विस्तृत है, क्योंकि इसमें अवान्तर कर्म प्रकृतियों की चर्चा भी हुई है। इसमें ज्ञानावरण कर्म की 5, दर्शनावरण की 9, वेदनीय की 2, मोहनीय की 2 एवं 28, नामकर्म की 2 एवं अनेक, आयुष्यकर्म की 4, गोत्रकर्म की 2 और अन्तराय कर्म की 5 अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख मिलता है 1 3 । आगे जो कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें नामकर्म की प्रकृतियों की संख्या में और भी वृद्धि हुई, साथ ही उनमें आत्मा में किस अवस्था में कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय, सत्ता, बन्ध आदि होते हैं, इसकी भी चर्चा हुई। वस्तुतः जैन कर्मसिद्धान्त ई.पू. आठवीं शती से लेकर ईस्वी सन् की सातवीं शतीं तक लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्यवस्थित होता रहा है । यह एक सुनिश्चित सत्य है कि कर्मसिद्धान्त का जितना गहन विश्लेषण जैन परम्परा के कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में हुआ, उतना अन्यत्र किसी भी परम्परा में नहीं हुआ है।
कर्म शब्द का अर्थ
जब हम जैन कर्मसिद्धान्त की बात करते हैं, तो हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि उसमें कर्म शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वह अर्थ कर्म के उस सामान्य अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामान्यतया कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है, प्रत्येक हलचल चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या शारीरिक हो, कर्म है। किन्तु जैन परम्परा में जब हम कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वहाँ ये क्रियायें तभी कर्म बनती हैं, जब ये बन्धन का कारण हों । मीमांसादर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ-याग आदि क्रियाओं से लिया जाता है। गीता आदि में कर्म
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