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डॉ. सागरमल जैन
है। महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार मरण कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अननुमोदित नहीं किये हैं वलन्मरण और वशार्तमरण। इसी प्रकार निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन और तस्पतनमरण, जल - प्रवेशमरण और अग्निप्रवेशमरण, विषभक्षणमरण और शास्त्रावपातन मरण । ये दो-दो प्रकार के मरण भ्रमण निर्ग्रन्थों के लिए श्रमण भगवान महावीर ने कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित नहीं किये हैं । किन्तु कारण - विशेष होने पर वैहायस (वैखानस ) और गिद्धष्ठ ये दो मरण अनुमोदित हैं । श्रमण महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण सदा वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित किये हैं प्रायोपगमनमरण और भक्त प्रत्याख्यानमरण । प्रायोपगमनमरण दो
प्रकार का कहा गया है निर्धारिम और अनिर्धारिम । प्रायोपगमन मरण नियमतः अप्रतिकर्म होता है । भक्तप्रत्याख्यानमरण दो प्रकार का कहा गया है-- निर्धारिम और अनिर्हारिम । भक्त प्रत्याख्यानमरण नियमतः सप्रतिकर्म होता है।
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समवायांग (समवाय 17 ) में मरण के निम्न सग्रह प्रकारों का उल्लेख हुआ है -
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1. आवीचिमरण, 2. अवधिमरण, 3. आत्यान्तिकमरण, 4. वलन्मरण, 5. वशार्तमरण, 6. अन्तः शल्यमरण, 7. तद्भव मरण, 8. बालमरण, 9. पण्डित मरण, 10. बालपण्डित मरण, 11. छद्मस्थमरण, 12. केवलिमरण, 13. वैखानसमरण, 14. गृद्धपृष्टमरण, 15. भक्त प्रत्याख्यानमरण, 16. इंगिनिमरण एवं 17. पादोपगमनमरण ।
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इनमें से बालपण्डितमरण, पण्डितमरण, छद्मस्थमरण, केवलीमरण, भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनिमरण व प्रायोपगमन का संबन्ध समाधिमरण से है । किन्हीं स्थितियों में वैखानसमरण, गृद्धस्पृष्टमरण को जैन परम्परा में भी उचित माना गया है । किन्तु ये दोनों अपवादिक स्थिति में ही उचित माने गये हैं जैसे जब ब्रह्मचर्य के पालन और जीवन के संरक्षण में एक ही विकल्प हो, तो ऐसी स्थिति में वैखानसमरण द्वारा शरीर त्याग को उचित माना गया है। ज्ञातव्य है कि भगवती आराधना में भी समवायांग के समान ही मरण के उपर्युक्त सत्रह प्रकारों का उल्लेख है। यद्यपि कहीं-कहीं उनके नाम एवं क्रम में अन्तर दिखायी देता है । उदाहरणार्थ समवायांग में छद्मस्थमरण का उल्लेख है जबकि भगवती आराधना में इसका उल्लेख नहीं है। इसके स्थान पर उसमें ओसन्नमरण का उल्लेख है। समवायांग के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा अनुत्तरौपपातिकदशा तथा विपाकदशा आदि अंग आगमों में जीवन के अंतिम काल में संलेखना द्वारा शरीर त्यागने वाले साधकों की कथाएँ हैं। इसमें भगवतीसूत्र में अम्बड़ संन्यासी और उसके 500 शिष्यों के द्वारा अदत्त जल का सेवन नहीं करते हुए गंगा की बालू पर समाधिमरण लेने का उल्लेख है । उपासकदशा में भगवान महावीर के आनन्द, कामदेव, सकडालपुत्र, चुलिनीपिता आदि दश गृहस्थ उपासकों द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने और उनमें विघ्नों के उपस्थित होने तथा आनन्द को इस अवस्था में विस्तृत अवधिज्ञान उत्पन्न होने, गौतम के द्वारा आनन्द से क्षमा-याचना करने आदि के उल्लेख हैं। इसी प्रकार अन्तकृतदशा में कुछ श्रमणों और आर्यिकाओं द्वारा समाधिमरण स्वीकार करने और उस दशा में कैवल्य एवं मोक्ष प्राप्त करने के निर्देश हैं । किन्तु विस्तार भय से इन सबकी चर्चा में जाना हम यहाँ आवश्यक
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