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________________ डॉ. सागरमल जैन 84 यह बताया गया है कि अकल्प का सेवन करने की अपेक्षा शरीर का विसर्जन कर देना ही उचित है। उसमें कहा गया है कि जब भिक्षु को यह अनुभव हो कि मेरा शरीर अब इतना दुर्बल अथवा रोग से अक्रान्त हो गया है कि गृहस्थों के घर भिक्षा हेतु परिभ्रमण करना मेरे लिए सम्भव नहीं है, साथ ही मुझे गृहस्थ के द्वारा मेरे सम्मुख लाया गया आहार आदि ग्रहण करना योग्य नहीं है । ऐसी स्थिति में एकाकी साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि के लिए आहार का त्याग करके संथारा ग्रहण करने का विधान है। यद्यपि आचारांग के अनुसार संघस्थ मुनि बीमारी अथवा वृद्धावस्था जन्य शारीरिक दुर्बलता की स्थिति में आहारादि से एक दूसरे का उपकार अर्थात् सेवा कर सकते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में भी उसमें चार विकल्पों का उल्लेख हुआ है- 1. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं [ साधर्मिक भिक्षुओं के लिए ] आहार आदि लाऊंगा और [ उनके द्वारा ] लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा । अथवा 2. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं [दूसरों के लिए ] आहार आदि नहीं लाऊगां, किन्तु [उनके द्वारा] लाया हुआ स्वीकार करूँगा । अथवा 3. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरों के लिए आहार आदि लाऊंगा किन्तु उनके द्वारा लाया स्वीकार नहीं करूंगा । अथवा 4. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो ( दूसरों के लिए) आहार आदि लाऊँगा और न (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार करूंगा । उपरोक्त चार विकल्पों में से जो भिक्षु प्रथम दो विकल्प स्वीकार करता है, वह आहारादि के लिए संघस्य मुनियों की सेवा ले सकता है, किन्तु जो अंतिम दो विकल्प स्वीकार करता है, उसके लिए आहारादि के लिये दूसरों की सेवा लेने में प्रतिज्ञा भंग का दोष आता है। ऐसी स्थिति आचारांगकार का मन्तव्य यही है कि प्रतिज्ञा भंग नहीं करना चाहिये भले ही भक्तप्रत्याख्यान कर देह त्याग करना पड़े । आचारांगकार के अनुसार ऐसी स्थिति में जब भिक्षु को यह संकल्प उत्पन्न हो कि मैं इस समय संयम साधना के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ ) हो रहा हूँ, तब वह क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे । आहार का संक्षेप कर कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ ) को कृश करें। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु फल का वस्थित हो समाधि मरण के लिए उत्थित (प्रयत्नशील ) होकर शरीर का उत्सर्ग करे। संथारा ग्रहण करने का निश्चय कर लेने के पश्चात् वह किस प्रकार समाधिमरण ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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