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________________ 1 पञ्चाध्यायी । [ प्रथम अर्थ - द्रव्यकी अपेक्षा स्यात् अस्ति और स्यात् नास्तिका अर्थ यह है कि वस्तु जिस समय महासत्ता की अपेक्षासे कथंचित् है, उस समय अवान्तर सत्ताकी अपेक्षासे वह कथंचित् नहीं भी है । वस्तुमें अवान्तर सत्ताकी अपेक्षासे ही अभाव आता है । वास्तव में वह अभावात्मक नहीं है । 1 अपि चाऽवान्तरसत्तारूपेण यदावधार्यते वस्तु । अपरेण महासत्तारूपेणाभाव एव भवति तदा ॥ २६८ ॥ उस अर्थ — इसी प्रकार जिस समय अवान्तर सत्ताकी अपेक्षासे वस्तु कही जाती है, समय उसकी अपेक्षासे तो वह कथंचित् है । परन्तु प्रतिपक्षी महासत्ता की अपेक्षासे कथंचित नहीं भी है । 1 भावार्थ- वास्तव में वस्तु तो जैसी है, वह वैसी ही है । उसमेंसे तो कुछ कभी जाता है और न उसमें कुछ कभी आता है । केवल कथन शैलीसे उसमें भेद हो जाता है । जिस समय वस्तुको महासत्ताकी दृष्टिसे देखते हैं, उस समय वह सत्रूप ही दीखती है उस समय वह द्रव्य नहीं कही जा सक्ती, गुण भी नहीं कही जा सक्ती, और पर्यायभी नहीं कही जासक्ती | इस लिये उस समय यह कहा जा सक्ता है कि वस्तु सत् रूपसे तो है, परन्तु वह द्रव्य, गुण, पर्याय आदि रूपसे नहीं है । इसी प्रकार जिस समय अवान्तर सत्ताकी दृष्टि से वस्तु देखी जाती है उस समय वह द्रव्य अथवा पर्याय आदि विशेष सत् रूपसे तो है, परन्तु सामान्य सत् रूपसे नहीं हैं । इस प्रकार वस्तुमें कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्व सुघटित होता है । वस्तुमें नास्तित्व केवल अपेक्षा दृष्टिसे ही आता है । वास्तवमें वस्तु अभाव स्वरूप नहीं हैं । दृष्टान्त दृष्टान्तः स्पष्टोऽयं यथा पटो द्रव्यमस्ति नास्तीति । पटशुक्लत्वादीनामन्यतमस्याविवक्षितत्वाच्च ॥ २६९ ॥ अर्थ — कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्वका दृष्टान्त भी स्पष्ट ही है कि जिस प्रकार पट (वस्त्र) द्रव्य पटकी अपेक्षासे तो है परन्तु वही पट द्रव्य पटके शुक्लादि गुणोंकी अविवाक्षाकी अपेक्षासे नहीं है । भावार्थ- शुक्लादि गुणोंका समूह ही पट कहलाता है । जिस समय पटको मुख्य रीतिसे कहते हैं उस समय उसके गुण नहींके बराबर समझे जाते हैं और जिस समय शुक्लादि गुणोंको मुख्य रीति से कहते हैं, उस समय पट भी नहीं के बराबर समझा जाता है । कहने की अपेक्षासे ही वस्तु में मुख्य और गौणकी व्यवस्था होती है, तथा उसी व्यवस्था से वस्तुमें कथंचित् अस्तिवाद और कथंचित् नास्तिबाद आता है इसीका नाम स्याद्वाद है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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