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पश्चाध्यायी।
[प्रथम
अर्थ-ऊपर कहे हुए दोषोंके भयसे आस्तिक्यके चाहनेवाले पुरुषको प्रकृतमें उत्पाद आदिक तीनोंका ही अविनाभाव मानना चाहिये । भावार्थ-तीनों एक साथ परस्पर सापेक्ष हैं, यही निर्दोष सिद्ध है।
नयी प्रतिज्ञा-- उक्तं गुणपर्ययवद्दव्यं यत्तव्ययादियुक्तं सत् ।
अथ वस्तुस्थितिरिह किल वाच्याऽनेकान्तबोधशुद्ध्यर्थम् ॥२६॥
अर्थ--द्रव्य गुणपर्यायका समूह है और वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यवाला है, यह बात तो कही जा चुकी । अब अनेकान्त (म्याद्वाद)का बोध होनेके लिय वस्तुका विचार करते हैं
अनेकान्त चतुष्टय--- स्थादस्तिं च नास्तीति च नित्यमानत्यं त्वनेकमेकं च ।
तदतचेति चतुष्टययुग्मैरिव गुम्फितं वस्तु ॥ २६२ ॥
अर्थ---स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् एक, स्यात् अनेक, स्यात् तत्, स्यात् अतत्, इस प्रकार इन चार युगलोंकी तरह वस्तु अनेक धर्मोसे गुंथी हुई है।
चतुष्टय होने कारण--.... अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तचतुष्कं च । द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाथ वाऽपि भावेन ॥२६३॥
अर्थ-उसीका खुलासा करते हैं कि जो कथंचित (किसी स्वरूपसे) है वही कथंचित नहीं भी है। इसी प्रकार जो कथंचित् नित्य है वही कथंचित् अनित्य भी है। जो कथंचित् एक है वही कथंचित् अनेक भी है । जो कथंचित् वही है, वह कथंचित् वह नहीं भी है। इस प्रकार ये चारों ही कथंचित् वाद (स्याद्वाद) द्वय, क्षेत्र, काल और भाक्की अपेक्षासे होते हैं।
द्रव्यकी अपक्षास कथन । एका हि महासत्ता सत्ता वा स्यादवान्तराख्या च । न पृथकप्रदेशवत्वं स्वरूपभेदोषि लानयोरेव ॥ २६४ ॥
अर्थ----एक तो महासत्ता है । दूसरी अवान्तर सत्ता है। इन दोनों सत्ताओंके वस्तुसे भिन्न प्रदेश नहीं हैं अर्थात् सत्ता स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है तथा दोनों में स्वरूप भेद भी नहीं है। दोनोंका एक ही स्वरूप है केवल अपेक्षा-कथन भेद है ।
* इन दोनों सत्ताओंका स्वरूप विशद रीतिमे पहले भी कहा जा चूकी है। और उत्तरार्धके प्रारंभमें भी कहा गया है।
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