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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
[ ७५
अर्थ-वृक्षका दृष्टान्त स्पष्ट है । जिस प्रकार वृक्ष सत् रूप अंकुर से स्वयं उत्पन्न होता है, बीज रूपसे नष्ट होता है और वह वृक्षपनेस दोनों जगह ध्रुव है।
न हि बीजेन विनष्टः स्यादुत्पन्नश्च तेन बीजेन । ध्रौव्यं बीजेन पुनः स्यादित्यध्यक्षपक्षवाध्यत्वात् ॥ २४५ ॥
अर्थ-ऐसा नहीं है कि वृक्ष वीजरूपसे ही तो नष्ट होता हो, उसी वीज रूपसे वह उत्पन्न होता हो और उसी वीज सबमे वह ध्रुवभी रहता हो क्योंकि यह बात प्रत्यक्ष वाधित है।
सत् ही उत्पाद व्यय स्वरूप है-- उत्पादव्यययोरपि भवति यदात्मा स्वयं सदेवेति ।
तस्मादेतवयमपि वस्तु सदेवेति नान्यदस्ति सतः॥ २४६ ॥
अर्थ-उत्पाद और व्यय दोनोंका आत्मा ( जीव भूत ) स्वयं सत् ही है-इसलिये ये दोनों ही सद्वस्तुस्वरूप हैं । सत्से भिन्न ये दोनों कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है ।
उत्पादादिक पर्यायदृष्टि से ही हैं--- पर्यायादेशत्वादस्त्युत्पादो व्ययोस्ति च धौव्यम् ।
द्रव्यार्थादेशत्वान्नाप्युत्पादो व्ययोपि न प्रौव्यम् ॥ २४७॥
अर्थ-पर्यायार्थिक नयसे उत्पाद भी है, व्यय भी है, और प्रौव्य भी है । द्रव्यार्थिक नय से न उत्पाद है, न व्यय है, और न धौव्य है।
शङ्काकार--- ननु चोत्पादेन सता कृतमसतैकेन वा व्ययेनाऽथ । _ यदि व ध्रौव्यण पुनर्यदवश्यं तत्त्रयेण कथमिति चेत् ॥ २४८॥
अर्थ--यातो सद्प उत्पाद स्वरूप ही वस्तु मानो, या असद्रूप व्यय स्वरूप ही वस्तु मानो, अथवा ध्रौव्य स्वरूप ही वस्तु मानो, तीनों स्वरूप उसे कैसे मानते हो ?
उत्तर--- तन्न यदविनाभावः प्रादुर्भावध्रुवव्ययानां हि ।
यस्मादकेन विना न स्यादितरवयं तु तनियमात् ॥२४९॥
अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि उत्पाद व्यय और धौल्य, इन तीनोंका नियमसे अविनाभाव है क्योंकि एकको छोड़कर दूसरे दोनों भी नहीं रह सक्ते ।
__ अपि च द्वाभ्यां ताभ्यामन्यतमाभ्यां विना न चान्यतरत् ।
एकं वा तदवश्यं तत्त्रयमिह वस्तु संसिध्यै ॥ २५० ॥
अर्थ-अथवा विना किन्ही भी दोके कोई एक भी नहीं रह सकता है इसलिये यह आवश्यक है कि वस्तुकी भले प्रकार सिद्धिके लिये उत्पाद, व्यय, धौन्य तीनों एक साथ हों।
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