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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
अर्थ - - द्रव्य और गुण समुद्रकी तरह नित्य हैं और पर्यायें तरंगोंकी तरह उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं ऐसा माननेमें क्या दोष है ?
उत्तर
तन्न यतो दृष्टान्तः प्रकृतार्थस्यैव वाधको भवति ।
अपि तदनुक्तस्यास्य प्रकृतविपक्षस्य साधकत्वाच्च ॥ २१२ ॥ अर्थ--शङ्काकारकी यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि जो दृष्टान्त समुद्र और तरंगों का उसने दिया है वह उसके प्रकृत अर्थका बाक हो जता है और उसके अभिप्राय में विरुद्ध(विपक्ष) अर्थका साधक हो जाता है। किस प्रकार ? सो नीचे कहा जाता हैं
अर्थान्तरं हि न सतः परिणामेभ्यो गुणस्य कस्यापि । एकत्वाज्जलधेरिव कलितस्य तरङ्गमालाभ्यः ॥ २१३ ॥
जिस प्रकार तरंग मालाओंसे खचित समुद्र एक ही है ऐसा ही नहीं है कि तरंगें समुद्रसे भिन्न हों और समुद्र उनसे भिन्न हो, किन्तु तरंगोंसे डोलायमान होनेवाला समुद्र अभिन्न है, उसी प्रकार सत् ( द्रव्य ) से भिन्न गुण और पर्यायें पदार्थान्तर नहीं हैं ।
स्पष्ट अर्थ
किन्तु य एव समुद्रस्तरङ्गमाला भवन्ति ता एव । यस्मात्स्वयं स जलधिस्तरङ्गरूपेण परिणमति ॥ २१४ ॥
अर्थ - किन्तु ऐसा है कि जो समुद्र है वे ही तरङ्गमालायें हैं क्योंकि स्वयं वह समुद्र ही तरंगरूप परिणाम धारण करता है ।
दाष्टन्ति तस्मात्स्वयमुत्पादः सदिति धौव्यं व्ययोपि वा सदिति । नसतोsतिरिक्त एव हि व्युत्पादो वा व्ययोपि वा श्रौव्यम् ॥ २१५ ॥
अर्थ — इसलिये ( अथवा इसी प्रकार ) स्वयं सत् ही उत्पाद है, स्वयं सत् ही व्यय है, और वही स्वयं धन्य है । सत्से भिन्न न कोई उत्पाद है, न व्यय है, और
धन्य है ।
अथवा
यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युत्पादो व्ययोपि न धौव्यम् । गुणश्च पर्यय इति वा न स्याच्च केवलं सदिति ॥ २१६ ॥ अर्थ - अथवा भेद विकल्प निरपेक्ष- शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे न कोई उत्पाद है, न व्यय है, न धन्य है, न गुण है और न पर्याय है । केवल सन्मान ही वस्तु है ।
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