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________________ पञ्चाध्यायी। [प्रथम NNNNNNNN मनुष्य-जीवसे देव-जीव कथंचित् भिन्न है। जिस प्रकार दूधसे दही कथंचित् अन्यथाभावको प्राप्त होता है उसी प्रकार यह भी कथंचित् अन्यथा भावको क्यों नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य ही होगा। ___ शंकाकारननु चैवं सत्यसदपि किञ्चिद्वा जायते सदेव यथा । सदपि विनश्यत्यसदिव सदृशासहशत्वदर्शनादितिचेत् ॥१८॥ सदृशोत्पादो हि यथा स्यादुष्णः परिणमन् यथा वन्हिः । स्थादित्यसदृशजन्मा हरितात्पीतं यथा रसालफलम् ॥ १८२ ॥ अर्थ-इस प्रकारकी भिन्नता स्वीकार करनेसे मालूम होता है कि सत्की तरह कुछ असत् भी पैदा हो जाता है और असत्की तरह सत् पदार्थ भी विनष्ट हो जाता है, समानता और असमानताके देखनेसे ऐसा प्रतीत भी होता है । किसी किसीका समान उत्पाद होता है और किसी किसीका असमान उत्पाद होता है। अग्निका जो उप्ण रूप परिणमन होता है, वह उसका समान उत्पाद है और जो कच्चा आम पकनेपर हरेसे पीला हो जाता है वह असमान (विजातीय) उत्पाद है ? ___ भावार्थ-वस्तुके प्रतिसमय होनेवाले परिणमनको देखकर वस्तुको ही उत्पन्न और विनष्ट समझनेवालोंकी यह शंका है। उत्तर-- नैवं यतः स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा। उत्पादादित्रयमपि भवति च भावेन भावतया ॥ १८३ ।। अर्थ-उपर्युक्त जो शङ्का की गई है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि यह एक स्वाभाविक वात है कि न तो असत् पदार्थका जन्म होता है और न सत् पदार्थका विनाश ही होता है। जो उत्पाद, व्यय ध्रौव्य होते हैं वे भी वस्तुके एक भावसे भावान्तर रूप हैं। भावार्थ-जो पदार्थ है ही नहीं वह तो कहींसे आनहीं सक्ता, और जो उपस्थित है वह कहीं जा नहीं सकता, इसलिये न तो नवीन पदार्थकी उत्पत्ति ही होती हैं और न सत् पदा. र्थका विनाश ही होता है, किन्तु हरएक वस्तु प्रतिसमय भावसे भावान्तर होता रहता है। भावसे भावान्तर क्या है ? इसीका खुलासा नीचे किया जाता है____ अयमर्थः पूर्व यो भावः सोप्युत्तरत्र भावश्च । भूत्त्वा भवनं भावो नष्टोत्पन्नो न भाव इह कश्चित् ॥ १८४ ॥ अर्थ-इसका यह अर्थ है कि पहले जो भाव था वही उत्तर भाव रूप हो जाता है। होकर होनेका नाम ही भाव है । नष्ट और उत्पन्न कोई भाव नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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