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________________ (६) रत्नत्रयमिदं हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य ! आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोयमपराधः ॥ येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ (पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) यत्पुनः श्रेयसोबन्धो बन्धश्चाऽश्रेयसोपि वा। रागाद्वा द्वेषतो मोहात् स स्यानोपयोगसात् ॥ पाकाचारित्रमोहस्य रागोस्त्यौदयिकः स्फुटम् । सम्यक्त्वे स कुतो न्यायाज्ज्ञाने वाऽनुदयात्मके॥ व्याप्तिबन्धस्य रागाचैर्नाऽव्याप्तिर्विकल्पैरिव । विकल्पैरस्यचाव्याप्ति न व्याप्तिः किल तैरिव ॥ (पञ्चाध्यायी) ध-उक्त मूरिने हरएक विषयको युक्ति पूर्ण लिखनेके साथ ही उसे बहुत प्रकारसे समझानेका प्रयत्न किया है । जैसा कि पुरुषार्थसिद्धयुपायादि ग्रन्थोंके हिंसानिषेध, रात्रि भुक्ति निषेधादि प्रकरणोंसे प्रसिद्ध है। पञ्चाध्यायीमें भी हरएक विषयका विवेचन बहुत विस्तृत मिलता है । ऐसी ऐसी बातें भी कथन शैलीमें समताबोधक हैं । च---श्रीमत् अमृतचन्द्राचार्यने प्रत्येक ग्रन्थमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण, पर्याय, प्रमाण, निश्चयनय, व्यवहारनय, और अनेकान्त कथनकी ही सर्वत्र प्रधानता रक्खी है, यह बात समयसार प्रवचनसारादि ग्रन्थोंकी टीकाओंसे और पुरुषार्थसिद्धयुपायादि स्वतन्त्र ग्रन्थोंसे भली भांति निर्णीत है। यद्यपि पुरुषार्थसिद्धयुपाय और तत्त्वार्थसारको उन्होंने दूसरे २ विषयों पर रचा है, तथापि उक्त ग्रन्थोंके आदि अन्तमें अनेकान्तका ही प्रतिपादन किया है। इस प्रकार जो उनका प्रधान लक्ष्य ( उत्पाद व्यय ध्रौव्य, निश्चय व्यवहार नय, प्रमाण, अनेकान्त आदि ) था, उसीका उन्होंने पञ्चाध्यायीमें स्वतन्त्र निरूपण किया है । इस तत्त्वकथन शैलीसे तो हमें पूरा विश्वास होता है कि पञ्चाध्यायीके कर्ता अनेकान्त प्रधानी आचार्यवर्य-अमृतचन्द्र सूरि ही हैं * । उक्त सूरि विक्रम सम्वत् ९६२ में हुए हैं । जिन दिनों (सन् १९१५ में ) जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी सम्पादक "जैनमित्र" श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रमके अधिष्ठाता नियत होकर यहां ठहरे थे उन्होंने कुछ काल तक इस ग्रन्थको हमारे साथ विचारा और साथ ही इसकी हिन्दी टीका लिखनेके लिये हमें * हमारे गुरुवर्य पूज्यवर पं० गोपालदासजीका भी ऐसा ही अनुमान था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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