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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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भावार्थ– द्रव्य अनन्त गुणोंका समुदाय है । उन सम्पूर्ण गुणोंमें प्रति समय नयी नयी पर्यायें होती रहती हैं। उन समस्त पर्यायोंमें गुण बराबर साथ रहते हैं । हरएक गुणका अपनी समस्त अवस्थाओंमें अन्वय ( सन्तति अथवा अनुवृत्ति ) पाया जाता है । इस प्रकार अनन्त गुण समुदाय रूप द्रव्यमें अनन्त गुण ही अपनी समस्त अवस्थाओं में पाये जाते हैं, इसलिये गुण अन्वी कहलाते हैं । और इसीसे वे सदा स्वपक्ष अर्थात् स्वस्वरूपमें बने रहते हैं । पर्यायकी अपेक्षासे भिन्न २ नहीं हो जाते हैं ।
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इस लोक में 'पक्षा' पाठ है । सपक्ष कहते हैं अन्वायीको अर्थात् गुण व्यतिरेकी नहीं है जिसमें ' यह वही है ' ऐसी बुद्धि हो वह अन्वयी कहलाता है और जिसमें ऐसी बुद्धि न हो वह व्यतिरेकी कहलाता है । गुण अनेक हैं इसलिये नाना गुणोंकी अपेक्षासे यद्यपि गुण भी व्यतिरेकी हैं । परन्तु एक गुण अपनी समस्त अवस्थाओंमें रहता हुआ 'यह वही है ' इस बुद्धिको पैदा करता इसलिये वह अन्वयी ही है, परन्तु पर्यायोंमें यह वह नहीं है' ऐसी बुद्धि होती है इसलिये वे व्यतिरेकी हैं ।
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शङ्काकार
ननु च व्यतिरेकित्वं भवतु गुणानां सदन्वयत्वेपि । तदनेकत्वप्रसिद्धौ भावव्यतिरेकतः सतामिति चेत् ॥ १४५ ॥ अर्थ - गुणोंका सत्के साथ अन्वय होनेपर भी उनमें व्यतिरेकीपना भी होना चाहिये क्योंकि वे अनेक हैं । भाव व्यतिरेक भी पदार्थों में होता है ।
भावार्थ – अनेकोंमें ही व्यतिरेक घटता है, गुण भी अनेक हैं इसलिये उनमें भी व्यतिरेक घटना चाहिये । फिर गुणोंको अन्वयी ही क्यों कहा गया है ?
उत्तर-
तन्न यतोस्ति विशेषो व्यतिरेकस्थान्वयस्य चापि यथा । व्यतिरेकिणो ह्यनेकेप्येकः स्यादन्वयी गुणो नियमात् ॥ १४६ ॥ अर्थ - शंकाकारकी उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि अन्वय और व्यतिरेकमें विशेषता है व्यतिरेकी अनेक होते हैं । और एक गुण नियमसे अन्वयी होता है ।
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भावार्थ-व्यतिरेक अनेकमें घटता है, और अन्वय प्रवाह रूपसे चले जानेवाले एकमें घटता है । पर्यायें अनेक हैं, उनमें तो व्यतिरेक ही घटता है । गुणों में नाना गुणोंकी अपेक्षा यद्यपि व्यतिरेक है तथापि प्रत्येक गुण अन्वयी ही है। यह वह नहीं है, ऐसा जो
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X पुस्तक में यद्यपि 'सपक्षा' ही पाठ है । परन्तु हमने 'स्वपक्षा' पाठको भी हृदयंगत कर, उसका भी अर्थ ऊपर लिख दिया है । 'सपक्षा' का अर्थ तो अनुकूल है ही । परन्तु 'स्वपक्षा' का भी अर्थ उसी भावका प्रगट करता है । विज्ञ पाठक विचारें ।
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