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________________ HANNwww पश्चाध्यायी। [प्रथम बराबर है इस लिये ज्ञानका कभी नाश नहीं होता है । जब ज्ञानका कभी नाश नहीं होता यह बात सुप्रतीत है, तो वह नित्य क्यों नहीं है ? अवश्य है। गुणोंकी नित्यतामें ही दूसरा दृष्टान्त-- दृष्टान्तः किल वर्णो गुणो यथा परिणमन् रसालफले । हरितात्पीतस्तत्किं वर्णत्त्वं नष्टमिति नित्यम् ॥ १११ ॥ अर्थ-जिस प्रकार आमके फलमें रूप गुण बदलता रहता है, आमकी कच्ची अवस्थामें हरा रंग रहता है, पकनेपर उसमें पीला रंग हो जाता है, हरेसे पीला होनेपर क्या उसका रूप (रंग) नष्ट हो जाता है ? यदि नहीं नष्ट होता है तो क्यों नहीं रूप गुणको नित्य माना जावे ? अवश्य मानना चाहिये । भावार्थ-हरे रंगसे पीला रंग होनेमें केवल रंगकी अवस्थामें भेद हो जाता है । रंग दोनों ही अवस्थामें है इस लिये रंग सदा रहता है बह चाहे कभी हरा हो जाय, कभी पीला हो जाय, कभी लाल हो जाय, रंग सभी अवस्थाओंमें है इस लिये रंग (रूप) गुण नित्य है, यह दृष्टान्त अजीवका है, पहला जीवका था। गुणोंकी अनित्यताका विचार-- वस्तु यथा परिणामि तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि । तस्मादुत्पादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु ॥ ११२ ॥ इ यहांपर कोई ऐसी शंका करसक्ता है कि जीवात्माओंमें ज्ञान बराबर घटता हुआ प्रतीत होता है सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकमें घटते २ अक्षरके अनन्तवें भाग प्रमाण रह जाता है तो इससे सिद्ध होता है कि किसी जीवमें ज्ञानका सर्वथा ही अभाव हो जाता हो । यद्यपि स्थूल दृष्टिसे इस शंकाकी संभावना ठीक है, तथापि तत्त्व दृष्टि से विचार करनेपर उक्त शंका निर्मूल हो जाती है । किसी भी पदार्थमें कमी की संभावना. वहीं तक की जा सक्ती है, जहां तक कि उस पदार्थकी सत्ता है, पदार्थकी निश्शेषतामें कभी शब्दका प्रयोग ही नहीं हो सकता, दूसरे हर एक पदार्थको उत्कृष्टता और जघन्यताकी सीमा अवश्य है। ज्ञान गुणकी जघन्यतामें भी अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद बतलाये हैं। सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य ज्ञान में आवरण नहीं होता है, वह सदा प्रकटित रहता है और सदा निरावरण है। यदि उसमें भी आवरण आ जाय तो जीवमें जड़ताका प्रसंग आवेगा, ऐसी अवस्थामें वस्तुकी वस्तुता ही चली जाती है । शानकी नित्यतामें युक्तियोंके अतिरिक्त प्रमाणके लिये नीचे लिखी गाथा देखो सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढ़मसमयम्मि । हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥१॥ गोम्मटसार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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