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________________ sume अध्याय ।। सुबोधिनी टीका । [ ३३ __ अर्थ-लक्ष्य और लक्षणकी भेद विवक्षासे तो सत् गुण ही है परन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टिसे वही सत् स्वयं द्रव्य स्वरूप है। भावार्थ-वस्तुमें अनन्त गुण हैं। उन गुणोंमेंसे प्रत्येकको *चालनी न्यायसे यदि द्रव्यका लक्ष्य माना जावे तो उस अवस्थामें द्रव्य लक्ष्य ठहरेगा, और गुण उसका लक्षण ठहरेगा। लक्ष्य लक्षणकी अपेक्षासे ही गुण गुणीमें कथंचित् भेद है । इसी दृष्टिसे सत्ता और द्रव्यमें कथंचित् भेद है, परन्तु भेद विकल्प बुद्धिको हटाकर केवल द्रव्यार्थिक दृष्टिसे सत्ता और द्रव्य दोनोंमें कुछ भी भेद नहीं है, जो द्रव्य है सो ही सत्ता है । इसका खुलासा इस प्रकार है कि सम्पूर्ण गुणोंमें अभिन्नता होनेसे किसी एक गुणके द्वारा समग्र वस्तुका ग्रहण हो जाता है इस कथनसे सत्ता कहनेसे भी द्रव्यका ही बोध होता है और द्रव्यत्त्व कहनेसे भी द्रव्यका ही बोध होता है। वस्तुत्त्व कहनेसे भी द्रव्य ( वस्तु ) का ही बोध होता है। नय दृष्टिसे सत्ता, द्रव्यत्त्व और वस्तुत्त्वके कहनेसे केवल उन्ही गुणोंका ग्रहण होता है । अभेद बुद्धि रखनेसे उत्पाद व्यय, ध्रौव्य ये तीनों अवस्थायें द्रव्यकी कहलाती हैं इसलिये द्रव्य ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है। वस्त्वस्ति स्वतःसिद्धं यथा तथा तत्स्वनश्च परिणामि । तस्मादुत्पादस्थितिभंगमयं तत् सदेतदिह नियमात् ॥ ८९॥ - अर्थ-जिस प्रकार वस्तु अनादिनिधन स्वत: सिद्ध अविनाशी है उसी प्रकार परिणामी भी है इसलिये उत्पाद, स्थिति, भंग स्वरूप नियमसे सत् (द्रव्य) है। भावार्थ-वस्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है । द्रव्य दृष्टिसे नित्य है। उत्पादादि पर्याय दृष्टि से अनित्य है। वस्तुको परिणामी न माननेमें दोषनहि पुनरुत्पादस्थितिभंगमयं तदिनापि परिणामात् । __ असतो जन्मत्त्वादिह सतो विनाशस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ९० ॥ अर्थ-यदि विना परिणामके ही वस्तुको उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप माना जाय तो असत्की उत्पत्ति और सत्का विनाश अवश्यंभावी होगा। . भावार्थ-वस्तुको परिणमनशील मानकर यदि उत्पादि त्रय माने जावें तब तो वस्तुमें नित्यता कायम रहती है। यदि उसे परिणमनशील न मानकर उसमें उत्पादादि माना जावे तो *आटा छनते हुए क्रमसे चलनीके सम्पूर्ण छिद्रोंसे निकलता है इसीको 'चालनी न्याय ' कहते हैं। यही कथन प्रमाण कथन कहलाता है। प्रमाण लक्षण इस प्रकार है-'एक गुणमुखेनाऽशेषवस्तुकथनमिति' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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