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________________ ( ४ ) इस लोकोक्तिके अनुसार ग्रन्थकारका मनोरथ पूर्ण न हो सका और कुछ कम दो अध्याय रचकर ही उन्हें किसी भारी विघ्नका सामना करना पड़ा जिसके विषयमें हम सर्वथा अज्ञात हैं । वर्तमानमें यह ग्रन्थ इतना ही ( १९१३ श्लोक प्रमाण ) सर्वत्र उपलब्ध होता है । यह टीका कोल्हापुर यन्त्रालय द्वारा प्रकाशित मूल प्रतिके आधारपर की गई है, जिसे हमने पूज्यवर गुरुजीसे अध्ययन करते समय शुद्ध किया था, और जब हमारा शास्त्रार्थके समय अजमेर जाना हुआ तब वहांकी लिखित प्रतिसे छूटे हुए पाठोंको भी ठीक किया, तथा गतवर्ष यात्रा करते हुए जैनबद्री ( श्रवणवेलगुल ) में श्रीमद्राजमान्य दौर्वलि शास्त्रीके प्राचीन ग्रन्थभण्डारसे प्राप्त लिखित प्रतिसे भी अपनी प्रतिको मिलाया । इस भांति इसग्रन्थके संशोधनमें यथासाध्य यत्न किया मया है, किन्तु फिर भी २-३ स्थलोंपर छन्दोभंग तथा चरण भंग अव भी रह गये हैं, जो कि विना आश्रयके संशोधित न कर ज्योंके त्यों रख दिये गये हैं। इस ग्रन्थके रचियता कौन हैं ? इसका कोई लिखित प्रमाण हमारे देखनेमें नहीं आया है, संभव है कि ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारका कुछ परिचय मिलता, खेद है कि ग्रन्थके अधूरे रह जानेके कारण इसके कर्ताके विषयमें इस ग्रन्थसे कुछ निश्चय नहीं होता है। ऐसी विकट समस्यामें ग्रन्थकारका अनुमान उसके रचे हुए अन्य ग्रन्थोंकी कथन शैली, मङ्गलाचरण, विषय समता, पद समता आदिसे किया जाता है । इसी आधार पर हमारा अनुमान है कि इस ग्रन्थराज-पञ्चाध्यायीके कर्ता वे ही स्वामी अमृतचन्द्राचार्य हैं, जो कि समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय ग्रन्थोंके टीकाकार, तथा नाटक समयसार कलशा, पुरुषार्थसिद्धयुपाय और तत्त्वार्थसारके रचयिता हैं । इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि उपर्युक्त ग्रन्थ आचार्य वर्य--अमृतचन्द्र सूरि रुत हैं, कारण उनमेंसे कतिपय ग्रन्थों के अन्त में उक्त सूरिने अपना नामोल्लेख किया है। पुरुषार्थ सिद्ध पाय और तत्त्वार्थसार इन दो ग्रन्थों में ग्रन्थकर्ताका नामोल्लेख नहीं है, तो भी समस्त जैन विद्वान् इन ग्रन्थोंको स्वामी अमृतचन्द्र मूरि कृत ही मानते हैं, यह बात निर्विवाद है । हमारा अनुमान है कि उक्त दोनों ग्रन्थोंके रचयिताका अनुमान जैन विद्वानोंने उनकी रचना शैलीसे किया होगा, अतः हम भी इसी रचना शैलीकी समता पर अनुमान करते हैं कि इस पञ्चाध्यायीके कर्ता भी उक्त आचार्य हैं। अब हम पाठकोंको पञ्चाध्यायी और श्रीमत् अमृतचन्द्र सूरि कृत अन्य ग्रन्थोंकी समताका यहां पर कुछ दिग्दर्शन कराते हैं, साथ ही आशा करते हैं कि जिन विद्वानोंने उक्त आचार्यके बनाये हुए ग्रन्थोंके साथ ही पञ्चाध्यायीका अवलोकन किया है अथवा करेंगे तो वे भी हमसे अवश्य सहमत होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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