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________________ R A LIANCom - oA AAAAAAvonnonmuvran-vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvwrnvur-vvvvvvvvvvvvvvvvvv A सुबोधिनी टीका। [ २१५ तत्रापि यदा करणं ज्ञानं फलसिद्धिरस्ति नाम तदा । अविनाभावेन चितो हानोपादानवुद्धिसिद्धित्वात् ।। ७३१॥ अर्थ-उनमें भी जिस समय ज्ञान करण पड़ता है, उस समय अविनाभावसे आत्माकी हान उपादान रूपा बुद्धि उसका फल पड़ता है अर्थात् पूर्व ज्ञान करण और उत्तर ज्ञान फल पड़ता है और यह बात असिद्ध भी नहीं है। नाप्यतदप्रसिद्ध साधनसाध्ययोः सदृष्टान्तात् । न विना ज्ञानात्यागो भुजगादेर्वा गाद्युपादानम् ॥ ७३२॥ अर्थ-साधन भी ज्ञान पड़ता है और साध्य भी ज्ञान पड़ता है यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु दृष्टान्तसे सुसिद्ध है। यह बात प्रसिद्ध है कि ज्ञानके विना सर्पादिका त्याग और माला आदि इष्ट पदार्थोका ग्रहण नहीं होता है। भावार्थ-प्रमाणका स्वरूप इस प्रकार है-" हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् " हित नाम सुख और सुखके कारणोंका है, अहित नाम दुःख और दुःखोंके कारणोंका है । जो हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार कराने में समर्थ है वही प्रमाण होता है । ऐसा प्रमाण ज्ञान ही हो सक्ता है । क्योंकि सुख और सुखके कारणोंका परिज्ञान तथा दुःख और दुःखके कारणोंका परिज्ञान सिवा ज्ञानके जड़ पदार्थोसे नहीं हो सक्ता है, ज्ञानमें ही यह सामर्थ्य है कि वह सर्पादि अनिष्ट पदार्थोंमें ग्रहण रूप बुद्धि करावे इसलिये प्रमाण ज्ञान ही हो सक्ता है । तथा फल भी ज्ञान रूप ही होता है यह बात प्रायः सर्व सिद्ध है । कारण प्रमाणका फल अज्ञान निवृत्तिरूप होता है । ऐसा फल ज्ञान ही हो सक्ता है, जड़ नहीं। उक्तं प्रमाणलक्षणमिह यदनाहतं कुवादिभिः स्वैरम् । तल्लक्षणदोषत्वात्तत्सर्व लक्षणाभासम् ॥ ७३३ ॥ अर्थ-जो कुछ प्रमाणका लक्षण कुवादियोंने कहा है वह आहेत ( जैन ) लक्षण नहीं है, किन्तु उन्होंने स्वेच्छा पूर्वक कहा है, उसमें लक्षणके दोष आते हैं इसलिये वह लक्षण नहीं किन्तु लक्षणाभास है। भावार्थ----अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव ये तीन लक्षण के दोष हैं, जो लक्षण अपने लक्ष्यके एक देशमें न रहे उसे अव्याप्ति दोष कहते हैं, जो लक्षण अपने लक्ष्यके सिवा अलक्ष्यमें भी रहे उसे अव्याप्ति दोष कहते हैं जो लक्षण अपने लक्ष्यमें सर्वथा न रहे उसे असंभव दोष कहते हैं । इन तीन दोषोंसे रहित लक्षण ही लक्षण कहलाता है, अन्यथा वह लक्षणाभास है । प्रमाणका जो लक्षण अन्यवादियोंने किया है वह इन दोषोंसे रहित नहीं है यही बात नीचे कही जाती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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