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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
निश्चय नय यथार्थ है
स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थः ॥ ६२९ ॥ यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयोनोपादेय स्तदन्यनयवादः ॥ ६३० ॥ अर्थ — निश्चय नय यथार्थ विषयका प्रतिपादन करनेवाला है, इसलिये वह सम्यकूरूप है । यद्यपि निश्चयनय भी विकल्पात्मक है, तो भी वह विकल्प रहितसा प्रतीत होता है । यद्यपि वह 'म' इत्याकारक वचनसे कहा जाता है तो भी वह वचनागोचर ही जैसा प्रतीत होता है | निश्चय नयका क्या वाच्य है यह बात अनुभवगम्य ही है अर्थात् निश्चय नयके विषयका बोध अनुभवसे ही जाना जाता है । वचनसे वह नहीं कहा जाता, क्योंकि जो कुछ वचनसे विवेचन किया जायगा वह सब भेदरूप होनेसे व्यवहार नयका ही विषय हो जाता है । इसलिये वचनसे तो वह 'न' निषेधरूप ही वक्तव्य है । अथवा उस निश्चय नयके विषयपर श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि है और कही कार्यकारी है । इसलिये निश्चयनय ही उपादेय-ग्राह्य है । अन्य जितना भी नथवाद है सभी अग्राह्य - त्याज्य है ।
शंकाकार
ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोपि कथमभूतार्थः । गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च ॥ ६३१॥
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अथ किमभूतार्थत्वं द्रव्याभावोऽथ वा गुणाभावः । उभयाभावो वा किल तद्योगस्याप्यभावसादिति चेत् ॥ ३३२ ॥
अर्थ — सम्पूर्ण ही व्यवहार नय किसप्रकार मिथ्या हो सक्ता है ? क्योंकि 'गुणपर्ययवद्रव्यम्, गुण पर्यायवाला द्रव्य होता है, ऐसा उपदेश ( सर्वज्ञ व महर्षियोंका ) भी है तथा अनुभवसे भी यही बात सिद्ध होती है । हम पूछते हैं (शंकाकार) कि यहां पर क्या अभूतार्थपना है, द्रव्याभाव है अथवा गुणाभाव है । अथवा दोनोंका अभाव है, अथवा उन दोनोंके योग (मेल)का अभाव है । किसका अभाव है जिससे कि ' गुणपर्ययवदद्रव्यम्' यह कथन अभूतार्थ समझा जाय, यदि किसीका अभाव नहीं है तो फिर व्यबहार नय मिथ्या क्यों ?
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उत्तर---
सत्यं न गुणाभावो द्रव्याभावो न नोभयाभावः ।
न हि तद्योगाभावो व्यवहारः स्यात्तथाप्यभूतार्थः ॥ ३३३ ॥
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