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सुबोधिनी टीका। अर्थ---पदार्थमें यथार्थ प्रतीतिका होना ही आरितक्य बुद्धिका कारण है। ऐसी यथार्थ प्रतीति अनुपचरित-सद्भत व्यवहार नयसे होती है। साथ ही क्षणिकादि सिद्धान्तके माननेवालों (बौद्धादि)में विना किसी प्रयासके ही परम उपेक्षा (उदासीनता हो जाती है, यही इस नयका फल है । भावार्थ-घटज्ञान अवस्थामें भी ज्ञानको जीवका ही गुण समझना अनुपचरित-सद्भूत नय है, और यही पदार्थकी यथार्थ प्रतीतिका बीज है।
5 उपचरित-सद्भूत व्यवहारनयका स्वरूपउपचरितः सतो व्यवहारः स्यान्नयो यथा नाम ।
अविरुद्ध हेतुवशात्परतोप्युपचर्यते यथा स्वगुणः ॥५४०॥
अर्थ-अविरुद्धता पूर्वक किसी हेतुसे उस वस्तुका उसीमें परकी अपेक्षासे भी जहां पर उपचरित किया जाता है वहां पर उपचरित सद्भुत व्यवहार नय प्रवर्तित होता है । भावार्थ-यहां पर उसी वस्तुका गुण (विशेषगुण) उसीमें विवक्षित किया जाता है, इतना अंश तो सद्भूतका स्वरूप है । गुणीसे गुणका भेद किया गया है, इतना अंश व्यवहारका स्वरूप है तथा वह गुण उस वस्तुमें परसे उपचरित किया जाता है, इतना उपचरित-अंश है । इसलिये ऐसे ज्ञानवाला-उपचरित-सद्भुत व्यवहार नय कहलाता है, अथवा ऐसा उपचरित-प्रयोग भी उसी नयका विषय है।
दृष्टान्त
अर्थविकल्पो ज्ञान प्रमाणमिति लक्ष्यतधुनापि यथा।
अर्थः स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ॥५४१॥
अर्थ-जैसे प्रमाणका लक्षण कहा जाता है कि अर्थ विकल्प ज्ञानरूप प्रमाण होता है. यहां पर अर्थ नाम ज्ञान और पर पदार्थोका है । विकल्प नाम ज्ञानका उस आकाररूप होना है । अर्थात् स्व पर ज्ञान होना ही प्रमाण है । भावार्थ-ज्ञान अपने स्वरूपको जानता हुआ ही पर पदार्थोको जानता है, यही उसकी प्रमाणताका हेतु है । स्व पर पदार्थोका निश्चयात्मक बोध ही प्रमाण कहलाता है और यह ज्ञानकी विकल्पात्मक अवस्था है । यहां पर ज्ञानका स्वरूप उसके विषयभूत पदार्थों के उपचारसे सिद्ध किया जाता है, परन्तु विकल्परूप ज्ञानको जीवका ही गुण बतलाया गयाहै । इसलिये यह उपचरित सद्भुत व्यवहार नयका विषय है। ___ असदपि लक्षणमेतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पत्वात् ।
तदपि न विनावलम्बानिर्विषयं शक्यते वक्तुम् ॥५४२॥
अर्थ- ज्ञान यद्यपि निर्विकल्पक होनेसे सन्मात्र है इसलिये उपयुक्त विकल्प स्वरूप लक्षण उसमें नहीं जाता है, तथापि वह विना अवलम्बनके निर्विषय नहीं कहा जासक्ता है।
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