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सुबोधिनी टीका ।
क्षेत्र विचार----
यत्सन्तदेकदेशे तद्देशे न तद्वितीयेषु ।
अध्याय । ]
अपि तदूद्वितीयदेशे सदनेकं क्षेत्रतश्च को नेच्छेत् ॥ ४९६ ॥
अर्थ — जो सत् एक देशमें है वह उसी देश में है । वह दूसरे देशों में नहीं है ।
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और जो दूसरे देश में है वह उसीमें है, वह अन्यमें नहीं है । इसलिये क्षेत्रकी अपेक्षासे सत् अनेक है, इस बातको कौन नहीं चाहेगा ?
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काल विचार
यत्सत्तदेककाले तत्तत्काले न तदितरत्र पुनः ।
अपि सत्तदितरकाले सदनेकं कालतोपि तदवश्यम् ॥ ४९७ ॥ अर्थ — जो सत् एक कालमें है, वह उसी कालमें है, वह दूसरे कालमें नही है, और जो सत् दूसरे कालमें है वह पहलेमें अथवा तीसरे आदि कालों में नहीं है इसलिये कालकी अपेक्षासेभी सत् अनेक अवश्य है ।
भाव विचार-
तन्मात्रत्वादेको भावो यः स न तदन्यभावः स्यात् ।
भवति च तदन्यभावः सदनेकं भावतो भवेन्नियतम् ॥ ४९८ ॥ अर्थ -- जो एक भाव है वह अपने स्वरूपसे उसी प्रकार है, वह अन्यभावरूप नहीं हो सक्ता है, और जो अन्यभाव है वह अन्यरूप ही है वह दूसरे भाव रूप नहीं हो सक्ता है, इसलिये भावकी अपेक्षासे भी नियमसे सत् अनेक है ।
शेषो विधिरुक्तत्वादत्र न निर्दिष्ट एव दृष्टान्तः ।
अपि गौरवप्रसङ्गाद्यदि वा पुनरुक्तदोषभयात् ॥ ४९९ ॥
अर्थ ---वाकीकी विधि (सत् नित्य अनित्य भिन्न आदिरूप) पहले ही कही जाचुकी है, इसलिये वह नहीं कही जाती है। गौरवके प्रसंगसे अथवा पुनरुक्त दोषके भयसे उस विषय में दृष्टान्त भी नहीं कहा जाता है।
सारांश-
तस्माद्यदिह सदेकं सदनेकं स्यात्तदेव युक्तिवशात् । अन्यतरस्य विलोपे शेषविलोपस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ५०० ॥
अर्थ – इसलिये जो सत् एक है वही युक्तिवशसे अनेक भी सिद्ध होता है । यदि एक और अनेक इन दोनोंमेंसे किसी एकका लोप कर दिया जाय तो दूसरेका लोप भी दुर्निवार- अवश्यम्भावी है, अर्थात् एक दूसरेकी अपेक्षा रखता है । दोनोंकी सिद्धिमें दोनोंकी सापेक्षता ही कारण है । एक की असिद्धिमें दूसरेकी असिद्धि स्वयं सिद्ध है ।
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