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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
[ १४७
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सम्पूर्ण गुणोंकी एक ही सत्ता है इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे उनमें अखण्डता - अभेद सिद्ध है । भावार्थ - जो पूर्वमहर्षियोंने ' द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणाः ' इस सूत्र द्वारा बतलाया है, उसका और इस कथनका एक ही आशय है । शंकाकारको जो उन दोनोंमें विरुद्धता प्रतीत होती है उसका कारण उसकी असमझ है । उसने अपेक्षाको नहीं समझा है । अपेक्षाके समझनेपर जिन बातों में विरोध प्रतीत होता है उन्हीमें अविरोध प्रतीत होने लगता है । सूत्रकारोंने गुण लक्षण भेदसे भेद बतलाया है लक्षणकी अपेक्षासे सभी गुण परस्पर भेद रखते हैं । जो ज्ञान है वह दर्शन नहीं है, जो दर्शन है वह चारित्र नहीं है, जो चारित्र है वह वीर्य नहीं है, जो वीर्य है वह सुख नहीं है, क्योंकि सभी गुणोंके भिन्न २ कार्य प्रतीत होते हैं । इसलिये लक्षण भेदसे सभी गुण भिन्न हैं। एक गुण दूसरे गुणमें नहीं रह सक्ता है । ज्ञानका लक्षण वस्तुको जानना है । सुखका लक्षण आनन्द है । जानना आनन्द नहीं हो सक्ता है । आनन्द बात दूसरी है, जानना बात दूसरी है । ऐसा भेद देखा भी जाता है कि जिस समय कोई विद्वान् किसी ग्रन्थको समझने लगता है तो उसे उसके समझनेपर आनन्द आता है * इससे यह बात सिद्ध होती है कि ज्ञान दूसरा है, सुख दूसरा है । इसी प्रकार चारित्र, वीर्य आदि सभी गुणोंके भिन्न २ कार्य होनेसे सभी भिन्न हैं । इसलिये निर्गुणा गुणाः, इस सूत्रका आशय गुणोंमें सुघटित ही है। साथ ही दूसरी दृष्टिसे विचारने पर वे सभी गुण एक रूप ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि सब गुणोंकी एक ही सत्ता है। जिनकी एक सत्ता है वे किसी प्रकार भिन्न नहीं कहे जाते हैं । यदि सत्ताके अभेदमें भी भेद माना जाय तो किसी वस्तु अभिन्नता और स्वतन्त्रता आही नहीं सक्ती है। ज्ञान दर्शन सुख आदि अभिन्न हैं, ऐसी प्रतीति भी होती है, जिस समय जीवको ज्ञानी कहा जाता है उस समय विचार कहने पर सम्पूर्ण जीव ज्ञानमय ही प्रतीत होता है । दृष्टा कहने पर वह दर्शनमय ही प्रतीत होता है । सुखी कहने पर वह सुखमय ही प्रतीत होता है। ऐसा नहीं है कि ज्ञानी कहने पर जीवमें कुछ अंश तो ज्ञानमय प्रती होता हो, कुछ दर्शनमय होता हो और कुछ अंश सुखमय प्रतीत होता हो । किन्तु सर्वाश ज्ञानमय ही प्रतीत होता है । सुखी कहने पर सर्वाशरूपसे जीव सुखमय ही प्रतीत होता है, यदि ऐसा न माना जाय तो ज्ञानी कहने से सम्पूर्ण जीवका बोध नहीं होना जाहिये अथवा दृष्टा और मुखी कहने से भी सम्पूर्ण जीवका
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* किसी ग्रन्थके समझने पर जो आनन्द आता है वह सच्चा सुख नहीं कहा जा सक्ता । क्योंकि उसमें रागभाव है । उसे सुख गुणकी वैवाहिनेने कोई दान नहीं दखिती । यह ज्ञान सुखका भेद साधक बहुत स्थूल दृष्टान्त द्दं ठी दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि के स्वानुभव और सुखका है । जिस समय आत्मा निजका अनुभव करता है उसी समय उसे अलौकिक आनन्द आता है । वही आनन्द सच्चा सुख है । परन्तु वह अनुभव - ज्ञानसे जुदा है ।
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