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________________ सुबोधिनी टीका । और भी घटमृतिकोरिव वा बैतं तद्द्वैतवदद्वैतम् । नित्यं मृण्मात्रतया यदनित्यं घटत्वमात्रतया ॥ ४१३ ॥ अर्थ — अथवा सत् परिणाममें घट और मिट्टी के समान द्वैतभाव और अद्वैतभाव है मृत्तिका रूपसे तो उस पदार्थ में नित्यता आती है और घटरूप पर्यायकी अपेक्षासे उसमें अनित्यता आती है । उसी प्रकार द्रव्य दृष्टिसे सत् कहा जाता है और पर्याय दृष्टिसे परिकहा जाता है । अध्याय । ] उसीका खुलासा अयमर्थः सन्नित्यं तदभिज्ञप्तेर्यथा तदेवेदम् । न तदेवेदं नियमादिति प्रतीतेश्च सन्न नित्यं स्यात् ॥ ४१४॥ अर्थ — उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि सत् कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी है । किसी पुरुषको १० वर्ष पहले देखनेके पीछे दुवारा जब देखते हैं तब उसका वही स्वरूप पाते हैं जो कि १० वर्ष पहले हमने देखा था, इसलिये हम झट कह देते हैं कि यह वही पुरुष है जिसे हमने पहले देखा है, इस प्रत्यभिज्ञानरूप प्रतीतिसे तो सत् नित्य सिद्ध होता है, और उस पुरुषकी १० वर्ष पहले जो अवस्था थी वह १० वर्ष पीछे नहीं रहती। १० वर्ष पीछे एक प्रकारसे वह पुरुष ही बदल जाता है । फिर उसमें यह प्रतीति होने लगती है कि यह वैसा नहीं है, इस प्रतीति से सत् अनित्य सिद्ध होता हैं । और भी अप्युभयं युक्तिवशादेकं सचैककालमेकोक्तेः । अप्यनुभयं संदेतन्नयप्रमाणादिवादशून्यत्वात् ॥ ४१५ ॥ [ १२३ अर्थ —- युक्तिवश - विवक्षावश सत् उभय दो रूप भी है, और एककी विवक्षा करने से एक कालमें एक ही कहा जाता है, इसलिये वह एक है, अर्थात् विवक्षावश सत कथंचित् एक रूप है और कथंचित् उभयरूप है तथा वही सत् अनुभयरूप भी प्रतीत होने लगता है जबकि नय प्रमाणादि वादसे वह रहित होता है, अर्थात् विकल्पातीत अवस्था में वह सत् न एक है न दो है, किन्तु अनुभयरूप प्रतीत होता है । और भी व्यस्तं सन्नपयोगान्नित्यं नित्यत्वमात्रतस्तस्य । अपि च समस्तं सदिति प्रमाणसापेक्षतो विवक्षायाः ॥ ४१६॥ अर्थ — नयकी विवक्षा करनेसे सत् पृथक् २ ( जुदा ) है । नित्यत्वकी विवक्षा करने पर वह नित्य मात्र ही है, और प्रमाणकी विवक्षा करनेसे वही सत् समस्त ( अभिन्न-नित्यानित्य ) है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001681
Book TitlePanchadhyayi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakashan Karyalay Indore
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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