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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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अभीष्ट सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि दूसरे अर्थका यही आशय निकला कि शब्दके समान सत् परिणाम हैं, परन्तु ऐसा माननेसे शब्दके समान सत् परिणामात्मक पदार्थ भी अनित्य सिद्ध होगा, और ऐसी अनित्यता पदार्थ में अभीष्ट नहीं है इसलिये उक्त दृष्टान्त भी ठीक नहीं है । भेरी दण्ड भी दृष्टान्ताभास है-स्यादविचारितरस्या भेरीदण्डवदिति संदृष्टिः । पक्षाधर्मत्वेपि च व्याप्यासिडत्वदोषदुष्टत्वात् ॥ ३९६ ॥ तडित्वं स्यादिति सत्परिणामद्वयस्य यदि पक्षः । एकस्यापि न सिडिर्यदि वा सर्वोपि सर्वधर्मः स्यात् ॥ ३९७ ॥
अर्थ - भेरी दण्डका जो दृष्टान्त दिया गया है वह भी सत् परिणाम के विषयमें अविचारित रम्य है अर्थात् जबतक उसके विषयमें विचार नहीं किया जाता है तभी तक वह अच्छा प्रतीत होता है । विचारनेपर निःसार प्रतीत होता है । उसीका अनुमान इस प्रकार है-— सत्परिणामौ कार्यकारिणौ संयुक्तत्वात् भेरीदण्डवत्, अर्थात् शंकाकारका पक्ष है कि सत् परिणाम मिलकर कार्य करते हैं क्योंकि वे संयुक्त हैं । जिस प्रकार भेरी दण्ड संयुक्त होकर कार्यकारी होते हैं । यह शङ्काकारका अनुमान ठीक नहीं है । क्योंकि यहांपर जो
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संयुक्तत्व ' हेतु दिया गया है वह सत् परिणामरूप पक्षमें नहीं रहता है । इसलिये हेतु व्याप्यासिद्ध* दोषसे दूषित है । अर्थात् सत् परिणाम भेरीदण्डके समान मिलकर कार्यकारी नहीं है, किन्तु कथंचित् भिन्नता अथवा तादात्म्यरूपमें कार्यकारी है । यदि सत् परिणामको युतसिद्ध - भिन्न २ स्वतन्त्र माना जाय तो दोनोंमेंसे एक भी सिद्ध न हो सकेगा । क्योंकि दोनों ही परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षामें आत्मलाभ - स्वरूप सम्पादन करते हैं । यदि इन्हें स्वतन्त्र २ मानकर एकका दूसरा धर्म माना जाय तो ऐसी अवस्थामें सभी सबके धर्म हो जायँगे । कारण जब स्वतन्त्र रहनेपर भी एक दूसरेका धर्म माना जायगा तो धर्म धर्मीका कुछ नियम नहीं रहेगा | हरकोई हरएकका धर्म बन जाय इसमें कौन बाघक होगा ? भावार्थसत् परिणाम न तो भेरीदण्डके समान स्वतन्त्र ही हैं, और न संयोगी ही हैं । किन्तु परस्पर सापेक्ष तादात्म्य सम्बन्धी हैं इसलिये भेरीदण्डका दृष्टान्त सर्वथा असिद्ध है ।
अपूर्ण न्याय भी दृष्टान्ताभास है
इह यदपूर्णन्यायादस्ति परीक्षाक्षमो न दृष्टान्तः । अविशेषत्वापत्ती द्वैताभावस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ३९८ ॥
* पक्ष हेतुकी असिद्धताको व्याप्यासिद्ध दोष कहते हैं अथवा साध्य के साथ हेतु जहांपर व्याप्त न रहता हो वहांपर व्याप्यासिद्ध दोष आता है । यहांपर - सत् परिणाम में न तो संयुक्तत्व हेतु रहता है और न कार्यकारित्वके साथ संयुक्तत्वकी
व्याप्ति है ।
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