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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[प्रथमोऽध्यायः
अपेक्षासे दूसरा विशेष अंशकी अपेक्षासे । जो सामान्य अंशका अवलंबन लेकर प्रवृत्त हुआ करता है, उसको समग्रग्राही नैगमनय कहते हैं । जैसे कि चांदीका या सोनेका अथवा मट्टीका या पीतलका यद्वा सफेद पीला लाल काला आदि भेद न करके केवल घटमात्रको ग्रहण करना । जो विशेष अंशका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, उसको देशग्राही नैगम कहते हैं । जैसे कि घटको मट्टीका या पीतलका इत्यादि विशेषरूपसे ग्रहण करना । पदार्थोके सर्व देश और एक देश दोनोंके ग्रहण करनेको संग्रहनय कहते हैं । अर्थात् संग्रहनय " सम्पूर्ण पदार्थ सन्मात्र हैं" इस तरहसे सामान्यतया ही वस्तुको ग्रहण करनेवाला है। जिस प्रकार लौकिक पुरुष प्रायः करके घटादिक विशेष अंशको लेकर ही व्यवहार किया करते हैं। उसी प्रकार जो नय विशेष अंशको ही ग्रहण किया करता है, उसको व्यवहार कहते हैं। यह नय प्रायः करके उपचारमें ही प्रवृत्त हुआ करता है। इसके ज्ञेय विषय अनेक हैं, इसी लिये इसको विस्तृतार्थ भी कहते हैं । जैसे यह कहना कि घड़ा चूता है, रास्ता चलता है, इत्यादि । वस्तुतः घड़े में भरा हुआ पानी चता है, और रास्तेके ऊपर मनष्यादि चलते हैं, फिर भी लौकिक जन घड़ेका चूना और रास्तेका चलना ही कहा करते हैं । इसी तरहका प्रायः उपचरित विषय ही व्यवहार नयका विषय समझना चाहिये । जो वर्तमान कालवर्ती घटादिक पर्यायरूप पदार्थोंको ग्रहण करता है, उसको ऋज्रसूत्र नय कहते हैं। व्यवहार नय त्रिकालवर्ती विशेष अंशोंको ग्रहण करता है, परन्तु उनमेंसे भत और भविष्यत्को छोड़कर केवल वर्तमानकालमें विद्यमान विशेष अंशोंको ही यह नय -ऋजुसूत्र ग्रहण करता है । व्यवहारकी अपेक्षा ऋजुसूत्रकी यही विशेषता है। जैसा पदार्थका स्वरूप है, वैसा ही उसका उच्चारण करना-कर्ता कर्म आदि कारकोंकी अपेक्षासे अर्थके अनुरूप ग्रहण या निरूपण करनेको शब्दनय कहते हैं । इस नयके तीन भेद हैं-साम्प्रत समभिरूढ और एवम्भत । निक्षेपोंकी अपेक्षासे पदार्थ चार प्रकारका है-नामरूप स्थापनारूप द्रव्यरूप और भावरूप । इनमेंसे किसी भी प्रकारके पदार्थका ऐसे शब्दके द्वारा जिसके कि उस पदार्थके साथ वाच्यवाचक सम्बन्धका पहलेते ही ज्ञान है, ज्ञान होनेको साम्पत नय कहते हैं । घटादिक वर्तमान पर्यायापन्न पदार्थों के विषयमें शब्दका संक्रम न करके ग्रहण करनेको समभिरूढ नय कहते हैं । व्यञ्जन-वाचकशब्द और अर्थ-अभिधेयरूप पदार्थ इन दोनोंका यथार्थ संघटन करनेवाले अध्यवसायको एवंभूत नय कहते हैं।
१-अन्यत्र सिद्धस्यार्थस्यान्यत्रारोप उपचारः । २--इन नयोंके विषयमें श्रीसिद्धसेनगणि कृत टीकामें विशेष लिखा है-३-इन नयोंके विषयमें दिगम्बर सम्प्रदायमें संज्ञा और लक्षण भिन्न प्रकारसे ही माना है। उन्होंने मूलसूत्रमें ही नयोंके सात भेद गिनाये हैं, यथा-" नेगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः।” अर्थात् नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुमूत्र शब्द समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। इनमेंसे आदिके तीन द्रव्यार्थिक और अंतकी चार पर्यायार्थिक हैं । अथवा आदिके ४ अर्थनय और अंतके ३ शब्दनय हैं। सातोंका विषय पूर्व पूर्वका महान् और उत्तरोत्तरका अल्प अल्प है । इनका लक्षण और संघटन आदिक तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदिमें देखना चाहिये ।
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