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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽध्यायः देख सकता, न विचार सकता और न असहायरूपसे ही जान सकता है, अतएव उसके मतिः श्रुत और अवधि ये तीनों हा ज्ञान अज्ञान ही कहे जाते हैं । भावार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव घटपटादिक पदार्थोंको यद्यपि सम्यग्दृष्टिके समान ही ग्रहण करता, तथा उनका निरूपण भी किया करता है, परन्तु मिथ्यात्वके निमित्त से उसके कारण - विपर्यास भेदाभेदविपर्यास स्वरूपविपर्यास भी रहा करते हैं, अतएव उसके ज्ञानको प्रमाणभूत अथवा समीचीन नहीं कह सकते । जैसे कि कोई पुरुष वस्त्रको तो वस्त्र ही माने, परन्तु उसको कुम्भारका बनाया हुआ और पत्थरका बना हुआ माने, तो उसके ज्ञानको अज्ञान ही समझा जाता है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये। मिध्यादृष्टि जीव यद्यपि मनुष्यको मनुष्य ही कहता है परन्तु उसके कारण के विषयमें ईश्वर आदि की भी कल्पना किया करता है, और वैसा ही फिर श्रद्धान भी करता है । इसी तरह भेदाभेद तथा स्वरूपके विषय में भी समझना चाहिये । अतएव उसके ज्ञानको प्रमाणरूप न मानकर अज्ञान ही मानना चाहिये । भाष्यम्-उक्तं ज्ञानम् । चारित्रं नवमेऽध्याये वक्ष्यामः । प्रमाणे चोक्ते । नयान् वक्ष्यामः । तद्यथा । - अर्थ - पूर्वोक्त रीतिसे ज्ञानका निरूपण और प्रकरण समाप्त हुआ । अब इसके बाद क्रमानुसार चारित्रका वर्णन प्राप्त है, परन्तु उसका वर्णन आगे चलकर इसी ग्रन्थके नौवें अध्यायमें करेंगे, अतएव यहाँपर उसके करनेकी आवश्यकता नहीं है । ज्ञानके प्रकरण में प्रमाण और नय इन दोका उल्लेख किया था, उसमेंसे प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्षरूप दोनों भेदोंका भी वर्णन ऊपर हो चुका । अतएव उसके अनंतर क्रमानुसार नयों का वर्णन होना चाहिये । सो उन्हींको बतानेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - नैगम संग्रहव्यवहारर्जुसृत्रशब्दा नयाः || ३४ ॥ भाष्यम् - नैगमः संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दः इत्येते पञ्चनया भवन्ति । तत्र । - अर्थ- -नयोंके पाँच भेद हैं । - नैगम सङ्ग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र और शब्द । भावार्थ - यह बात पहले लिखी जा चुकी है, कि प्रमाणके एक देशको नय कहते हैं । अर्थात् वस्तु अनेक धर्मात्मक या अनन्त धर्मात्मक है । परन्तु उन अनन्त धर्मोमेंसे - अस्तित्व या नास्तित्व, नित्यत्व या अनित्यत्व, एकत्व या अनेकत्व आदि किसी भी एक धर्मके द्वारा उस वस्तु के अवधारण करनेवाले ज्ञान विशेष - विकलादेशको नय कहते हैं । इस नयके अनेक अपेक्षाओंसे अनेक भेद हैं। परन्तु सामान्यसे यहाँ पर उसके उपर्युक्त पाँच भेद समझने चाहिये। जो वस्तुके सामान्य विशेष अथवा भेदाभेदको ग्रहण करनेवाला है, उसको अथवा संकल्पमात्र वस्तुके ग्रहण करनेको नैगम नय कहते हैं । जैसे कि अरहंतको सिद्ध कहना १ - तत्रेति पाठः पुस्तकान्तरे नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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