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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथमोऽध्यायः क्योंकि जिस प्रकार छाया और आतप-धूपमें परस्पर विरोध है, अथवा शीत उष्ण पर्यायोंमें अत्यंत विरुद्धता है । उसी प्रकार ज्ञान और अज्ञान भी परस्परमें सर्वथा विरुद्ध हैं, फिर भी मति श्रुत और अवधिको ज्ञान भी कहना और अज्ञान भी कहना यह कैसे बन सकता है ? उत्तर-जिन जीवोंने मिथ्यादर्शनको ग्रहण-धारण कर रक्खा है, उन जीवोंके थे तीनों ही ज्ञान पदार्थको याथात्म्यरूपसे ग्रहण नहीं करते-विपरीततया ग्रहण करते हैं, अतएव उनको विपरीत-अज्ञान कहते हैं । अर्थात् उनको क्रमसे मतिज्ञान श्रतज्ञान अवधिज्ञान न कह कर मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और विभंग कहा करते हैं । विपरीत अवधि-मिथ्यादृष्टि जीवके अवधिज्ञानको ही विभंग कहा करते हैं । अवध्यज्ञान और विभङ्ग पर्याय वाचक शब्द हैं। भावार्थ---व्यवहारमें ज्ञानके निषेधको अज्ञान कहा करते हैं, और निषेध दो प्रकारका माना है-पर्युदास और प्रसह्य । जो सदृश अर्थको ग्रहण करनेवाला है उसको पर्युदास कहते हैं, और जो सर्वथा निषेध-अभाव अर्थको प्रकट करता है उसको प्रसह्य कहा करते हैं । सो यहाँपर ज्ञानके निषेधका अर्थ पर्युदासरूप करना चाहिये न कि प्रसह्यरूप । अर्थात् अज्ञानका अर्थ ज्ञानोपयोगका अभाव नहीं है, किंतु मिथ्यादर्शन सहचरित ज्ञान ऐसा है। मिथ्यादर्शनका सहचारी ज्ञान तत्वोंके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण नहीं कर सकती । मिथ्यादृष्टिके ये तीन ही ज्ञानोपयोग हो सकते हैं, क्योंकि मनःपर्याय और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टिके ही हुआ करते हैं । अतएव इन तीनोंको विपरीतज्ञान अथवा अज्ञान कहा है। भाष्यम्-अत्राह-उक्तं भवता सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं मत्यादि ज्ञानं भवत्यन्यथाऽज्ञानमेवेति । मिथ्यादृष्टयोऽपि च भव्याश्चाभन्याश्चेन्द्रियनिमित्तानविपरीतान् स्पर्शादीनुपलभन्ते, उपदिशन्ति च स्पर्श स्पर्श इति रसं रस इति, एवं शेषान् । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते।तेषां हि विपरीतमेतद्भवति ।: अर्थ-प्रश्न-आपने कहा कि सम्यग्दर्शनके सहचारी मत्यादिकको तो ज्ञान कहते हैं और उससे विपरीत-मिथ्यादर्श सहचारी मत्यादिकको अज्ञान कहते हैं । सो यह बात कैसे बन सकती है । क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी चाहे वे भव्य हो चाहे अभव्य इन्द्रियोंके निमित्तसे जिनका ग्रहण हुआ करता है, उन स्पर्शादिक विषयोंको अविपरीत ही ग्रहण किया करते हैं और उनका निरूपण भी वैसा ही किया करते हैं। वे भी स्पर्श को स्पर्श और रसको रस ही जानते तथा कहा भी करते हैं । इसी प्रकार शेष विषयोंमें भी समझना चाहिये । फिर क्या कारण है कि उनके ज्ञानको विपरीत ज्ञान अथवा अज्ञान कहा जाय ? उत्तर-~-मिथ्यादृष्टियोंका ज्ञान विपरीत ही हुआ करता है। क्योंकिः १-“ पर्युदासः सदृग्ग्राही, प्रसास्तु निषेधकृत् ।” २-मिच्छाइट्टी जीवो उबइट पवयणं ण सद्दहदि । सहदि असम्भावं उबइ वा अणुबइट ॥ १८॥-गो. जीवकांड । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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