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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ दशमोध्यायः प्रशस्ति ।
क्रमसे चले आये हुए पूज्य अर्हद्वचनको अच्छी तरह धारण करके और यह देख करके कि यह संसार मिथ्या आगमोंके निमित्तसे नष्ट - बुद्धि हो रहा है, और इसीलिये दुःखोंसे पीड़ित भी बना हुआ है, उन प्राणियोंपर दया करके इस उच्च आगमकी रचना की है, और इस शास्त्रको तत्त्वार्था - घिगमनाम से स्पष्ट किया है । जो इस तत्त्वार्थाधिगमको जानेगा, और इसमें जैसा कि बताया गया है, तदनुसार प्रवर्तन करेगा, वह शीघ्र ही परम अर्थ - अव्याबाध सुखको प्राप्त होगा ।
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भावार्थ — इस मूलशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीका तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके रचयिता श्री उमास्वति आचार्य हैं । जोकि वाचकमुख्य शिवश्री के प्रशिष्य और घोषनन्दिक्षमणके शिष्य थे, और वाचनाकी अपेक्षा मूलनामक वाचकाचार्य के शिष्य थे । ये मूल नामक वाचकाचार्य महावाचकक्षमण श्रीमुण्डपादके शिष्य थे । उमास्वातिका शरीर - जन्म न्यग्रोधिका स्थानमें स्वाति पिताके द्वारा वात्सी नामक माता के गर्भ से हुआ था, इनका गोत्र कौभीषणी और शाखा नागरवाचक थी । गुरु क्रमसे आये हुए आगमका अभ्यास करके विहार करते हुए कुसुमपुर नामक नगर में आकर इस ग्रंथकी रचना की । ग्रन्थ लिखनेका हेतु प्राणिमात्र के लिये सच्चे सुखके मार्गको प्रकाशित करना ही है । अतएव जो इसके बताये हुए मार्ग पर चलेगा वह शीघ्र ही निर्बाध सुखका भागी होगा ।
इस प्रकार अर्हत्प्रवचनसंग्रह नामक तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका दशवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥
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