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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ दशमोऽध्यायः भावार्थ-कर्म नोकर्मसे रहित समी सिद्ध परमात्मा आत्मशक्तियोंकी अपेक्षा समान हैं । उनमें किसी विषयका अन्तर नहीं है । यदि उनमें किसी प्रकारसे भी विशेषताका वर्णन किया जा सकता है, तो बारह बातोंकी अपेक्षासे, इन्हींको बारह अनुयोग कहते हैं । जोकि क्षेत्रादि स्वरूप ऊपर गिनाये जा चुके हैं । इनका विशेष वर्णन आगे चलकर करते हैं । इनकी विशेषता पूर्वभावप्रज्ञापनीय और प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीय इन दो नयोंसे हुआ करती है । इन अनुयोगोंके द्वारा ही सिद्ध-जीवकी विशेषताका साधन किया जा सकता और वह जाना जा सकता, तथा उसका विचार किया जा सकता और व्याख्यान किया जा सकता है । इनके सिवाय शेष विषयोंमें सिद्ध-जीवोंको समान समझना चाहिये । क्षेत्रादि अनुयोगोंका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार है:
भाष्यम्-क्षेत्रम्-कस्मिन् क्षेत्रे सिध्यतीति । प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीयं प्रति सिद्धिक्षेत्रे सिद्धयति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु जातः सिध्यति । संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिध्यति । तत्र प्रमत्तसंयताः संयतासंयताश्च संव्हियन्ते । श्रमण्यपगतवेदः परिहारविशुद्धिसंयतः पुलाकोऽप्रमत्तश्चतुर्दशपूर्वी आहारकशरीरीति न संह्रियन्ते । ऋजुसूत्रनयः शब्दादयश्च त्रयः प्रत्पुत्पन्नभावप्रज्ञापनीयाः शेषानया उभयभावं प्रज्ञापयन्तीति ॥
काला-अत्रापि नयद्वयम् । कस्मिनकाले सिध्यतीति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य अकाले सिद्धयति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्मतः संहरणतश्च । जन्मतोऽवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च जातःसिद्ध्यति । एवं तावदविशेषतः, विशेषतोऽप्यवसर्पिण्यां सुषमदुःषमायां संख्येयेषु वर्षेषु शेषेषु जातः सिद्धयति । दुःषमसुषमायां सर्वस्यां सिध्यति । दुःषमसुषमायां जातो दुःषमायां सिद्धयति न तु दु:षमायां जातः सिद्ध्यति । अन्यत्र नैव सिद्धयति।संहरणं प्रति सर्वकालेष्ववसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च सिद्धयति॥
अर्थ क्षेत्रकी अपेक्षा विशेषता इस प्रकार है। यदि कोई यह जानना चाहे, अथवा प्रश्न करे, कि किस क्षेत्रसे सिद्धि-मुक्ति हुआ करती है, तो उसका उत्तर उपर्युक्त दो नयों. की अपेक्षा से हो सकता है । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयकी अपेक्षासे सिद्धिक्षेत्रमें ही सिद्धि होती है। पूर्वभावप्रज्ञापनीयकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुआ ही मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर सकता है । संहरणकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रमें सिद्धि होती है । किन्तु इनमें से संहरण प्रमत्तसंयत और संयतासंयतका ही होता है । श्रमणी-आर्यिका, अपगतवेद, परिहारविशुद्धिसंयमका धारक, पुलाक, अप्रमत्त, चौदह पूर्वका पाठी और आहारकशरीरको धारण करनेवाला इनका संहरण नहीं हुआ. करता । ऋजुसूत्र नयको और शब्दादिक तीन-शब्द समभिरूढ एवंभूतनयको प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीय कहते हैं और बाकीके नय दोनों ही भावके प्रज्ञापक माने गए हैं।
१-क्योंकि वर्तमानमें सिद्ध-जीव वही पाया जाता है । २-पाँच भरत पाँच ऐरावत और पाँच विदेहक्षेत्रोंको मिलाकर पंद्रह कर्मभूमियाँ होती हैं।
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