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________________ ४४४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [दशमोऽध्यायः - गुणयुक्त-उत्पादकशक्ति-उर्वराशक्तिके धारण करनेवाले किसी भूमिभाग-पृथ्वीके हिस्सेमें तंबेका बीज बो दिया। वह योग्य ऋतका समय पाकर उत्पन्न हुआ। तथा बीजके फूटनेकी अवस्थासे लेकर अङ्कर प्रबाल पर्ण-पत्ता पुष्प और फल आनेकी अवस्थातक उसका भले प्रकार जलसे सिंचन भी किया । फल आनेपर उसको किसी भी तरह खराब नहीं होने दिया, न कच्चा टूटने दिया और न बिगड़ने दिया-उसका खूब अच्छी तरहसे पालन-पोषण किया । अन्तमें वह फल स्वयं ही काल पाकर सूख गया और लतासे छूट गया। ऐसे तूंबाफलको यदि जलमें छोड़ा जाय तो वह डूबता नहीं । किन्तु उसपर यदि काली भारी मट्टीका बहुत सा लेप कर दिया जाय, तो उसमें उस घने मृत्तिकाके लेप और वेष्टनसे आगन्तुक-नैमित्तिक गुरुता आजाती है, और इसी लिये जलमें छोड़ देनेपर वह जलमें ही बैठ जाता है-जलके तल भागमें ही रह जाता है। किन्तु वहाँ पड़े रहनेपर जब जलके निमित्तसे उसका वह मट्टीका लेप भीगकर-गीला होकर क्रमसे छूट जाता है, तो उसी समय-मृत्तिकाके लेपका सम्बन्ध छूटते ही-मोक्षके अनन्तर ही उर्ध्व-गमन किया करता है, और वह जलके ऊपरके तलभाग तक गमन करता ही जाता है, और अंतमें ऊपर आकर ठहर जाता है । इसी प्रकार जीवके विषयमें भी समझना चाहिये । ऊर्ध्वगौरव और गतिधर्मको धारण करनेवाला जीव भी संसारमें आठ प्रकारके कर्मरूपी मृत्तिकाके लेपसे वेष्टित हो रहा है। उसके सम्बन्धसे वह अनेक भव-पर्यायरूपी जलसे पूर्ण संसाररूपी महान् समुद्रमें निमग्न हो जाता है, और नाना गतियोंमें आसक्त हुआ अधः तिर्यक तथा ऊर्ध्व दिशाकी तरफ गमन करता फिरता है । किन्तु जब सम्यग्दर्शन आदि गुणरूपी जलके निमित्तसे भीगकर अष्टविध कर्मरूपी मृत्तिकाका लेप छूट जाता है, तो उसी समय ऊर्ध्वगौरव स्वभावके कारण वह जीव ऊपरको ही गमन करता है, और लोकके अन्ततक गमन करता ही जाता है। भावार्थ-संसारावस्थामें अनेक विरुद्ध कारणोंके संयोगवश जीवकी स्वाभाविकी गति नहीं हो सकती । किन्तु उनके हटजानेपर ऊर्ध्व-गमनरूप स्वाभाविक परिणमन ही ऐसा होता है, कि जिसके निमित्तसे सिध्यमान-जीवकी लोकान्तप्रापिणी-गति हुआ करती है, और उससे तुम्बाफलके समान यह जीव लोकके अन्तमें जाकर ही ठहरता है। भाष्यम्-स्यादेतत् ।-लोकान्तादप्यूर्व मुक्तस्य गतिः किमर्थ न भवतीति ? अत्रोच्यते-धर्मास्तिकायाभावात् । धर्मास्तिकायो हि जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहेणोपकुरुते । स तत्र नास्ति । तस्माद्गत्युपग्रहकारणाभावात्परतो गतिर्न भवत्यप्मु अलाबुवत् । नाधो न तिर्यगित्युक्तम् । तत्रैवानुश्रेणिगतिर्लोकान्तेऽवतिष्ठते मुक्तो निःक्रियः इति ।। ___ अर्थ-आपने जो मुक्त-जीवकी सिध्यमान-गति लोकान्तप्रापिणी और स्वभावसे ही उर्ध्व दिशाकी तरफ होनेवाली बताई, सो ठीक है । परन्तु इस विषयमें शंका यह है, कि वह लोकके अन्ततक ही क्यों होती है ? सम्पूर्ण कर्मोंसे रहित जीव अपने स्वभावसे ही जब ऊपरको गमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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