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________________ ४२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम [ नवमोऽध्यायः ये चारों ध्यान किस किस प्रकारके जीवोंके हुआ करते हैं, सो बतानेके लिये सूत्र कहते हैं। सूत्र-तत्र्येककाययोगायोगानाम् ॥ ४२ ॥ भाष्यम्-तदेतच्चतुर्विधं शुक्लध्यानं त्रियोगस्यान्यतमयोगस्य काययोगस्यायोगस्य च यथासंख्यं भवति । तत्र त्रियोगानां पृथक्त्ववितर्कमैकान्यतमयोगानामेकत्ववितर्क काययोगानां सूक्ष्म क्रियाप्रतिपात्ययोगानां व्युपरतक्रियमनिवृत्तीति ॥ अर्थ-मनोयोग वचनयोग और काययोग ये योगके तीन भेद ऊपर बताये जा चुके हैं । जिन जीवोंके ये तीनों ही योग पाये जाते हैं, उनके पहला शुक्लध्यान-प्रथक्त्ववितर्क हो सकता है, और जिन जीवोंके इन तीनों से एक ही योग पाया जाता है, उनके दूसरा शुक्लध्यान-एकत्ववितर्क हो सकता है । जो तीनोंमेंसे केवल काययोगको ही धारण करनेवाले हैं, उनके तीसरा शुक्लध्यान-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति हुआ करता है, और जो तीनों ही योगोंसे रहित हैं, उनके चौथा शुक्लध्यान-व्युपरतक्रियानिवृत्ति हुआ करता है । इस प्रकार क्रमसे चारों ध्यानोंके चारों स्वामियोंको समझना चाहिये । अब चारों ध्यानोंमेंसे आदिके दो ध्यानोंमें जो विशेषता है, उसको बतानेके लिये आगे सत्र कहते हैं सूत्र-एकाश्रये सवितर्के पूर्वे ॥४३॥ भाष्यम्-एकद्रव्याश्रये सवितर्के पूर्वे ध्याने प्रथमद्वितीये । तत्र सविधारं प्रथमम् अर्थ--आदिके दोनों शुक्लध्यानों-पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्कका आश्रय एक ही द्रव्य है-ये पूर्वविद्-श्रुतकेवलीके ही होते हैं । तथा पहला और दूसरा ध्यान सवितर्क होता है । वितर्क शब्दका अर्थ आगे चलकर बतावेंगे । इसके सिवाय पहला पृथक्त्ववितर्क नामका शुक्लध्यान विचार सहित भी होता है । किन्तु सूत्र-अविचारं द्वितीयम् ॥४४॥ भाष्यम्-अविचारं सवितर्क द्वितीयं ध्यानं भवति ॥ अर्थ-दूसरा एकत्ववितर्क नामका शुक्लध्यान विचार रहित किन्तु वितर्कसहित हुआ करता है। विचार शब्दका अर्थ भी आगे चलकर स्वयं सत्रकार बतावेंगे । भाष्यम्-अत्राह-वितर्कविचारयोः कः प्रतिविशेष इति। अत्रोच्यते १-अभीतक सूत्रकारने कहींपर भी यह नहीं लिखा है, कि अमुक अमुक ध्यान सवीचार होते हैं । अतएव ऐसा किये विना ही एक प्रकृतभेदको अवीचार किस तरह कहते हैं, सो समझमें नहीं आता। दूसरा शुक्लध्यान विचार रहित होता है, यह कथन तभी ठीक जंचता है, जब कि पहले ध्यान सामान्यकी या उसके कुछ भेदोंकी सवीचारता बताई हो, ऐसा होनसे ही दूसरे ध्यानमें सवीचारताका निषेध करना युक्त प्रतीत होता है। दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार पहले सूत्रमें सविचार शब्दका भी पाठ है । यथा-" एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे " इससे सविचारता सिद्ध होनेपर निषेध किया है, कि " अर्वीचारं द्वितीयम् "। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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