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________________ ४२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्र [ नवमोऽध्यायः विचयके लिये जो पुनः पुनः विचार होता है, उसको - आज्ञा आदिके विषय में ही चिन्ताके निरोध करनेको धर्मध्यान कहते हैं । इसका स्वामी अप्रमत्तसंयत है । भावार्थ — अप्रमत्त संयत-सातवें गुणस्थानवाले जीवके धर्मध्यानके सिवाय और कोई ध्यान नहीं होता । आज्ञा आदि विषयभेदकी अपेक्षा तद्विषयक ध्यानके भी चार भेद हैं । आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय । कोई भी कार्य करते समय इस विषयमें जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा क्या है, ऐसा विचार करने को अथवा जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका प्रसार सर्वत्र किस प्रकारसे हो, उसका पुनः पुनः विचार करने को आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं । संसारी प्राणी नाना प्रकारके दुःखोंसे आक्रान्त - घिरे हुए हैं, फिर भी वे उसीके पोषक मिथ्यामार्गपर चल रहे हैं, और सन्मार्गसे दूर ही रहते हैं, वे उससे हटकर सन्मार्गपर कब और किस प्रकार से आसकते हैं, इस तरह के विचारका पुनः पुनः होना इसको अपायविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं। पीड़ाओंसे हरसमय घिरे हुए जीवोंको देखकर उनके विषय में पुनः पुनः ऐसा विचार करना, कि विचारोंने जो कर्मोंका संग्रह किया है, उसका फल भोग रहे हैं, इसको विपाकविचयधर्मध्यान कहते है । लोकके आकारका जो विचार करना, उसको संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं । 1 इसी धर्मध्यानके विषयमें एक विशेष बात कहने के लिये सूत्र कहते हैंसूत्र - उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८ ॥ भाष्यम् -- उपशान्तकषायस्य क्षीणकषायस्य च धर्मं ध्यानं भवति । किं चान्यत्अर्थ — जिसके सम्पूर्ण कषाय उपशान्त हो चुके हैं, ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवके और जिसके सम्पूर्ण कषाय सर्वथा निःशेष-क्षीण होगये हैं, ऐसे क्षीणकषाय नामके बारहवें गुणस्थानवाले जीवके भी धर्मध्यान होता है । इसके सिवाय - सूत्र -- शुक्लेचाद्ये ॥ ३९॥ भाष्यम् - शुक्ले चाद्ये ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के चोपशान्तक्षीणकषाययोर्भवतः । आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्वचितकैकत्ववितकें पूर्वविदो भवतः । अर्थ – उपशांतकषाय और क्षीणकषाय नामक ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवोंके आदिके दोनों शुक्लध्यान - पृथक्त्ववितर्क और एकस्ववितर्क नामके भी हुआ करते १--रौद्रध्यान पाँचवें गुणस्थानतक और आर्तध्यान छगुणस्थानतक कहा है, अतएव अप्रमत्तके धर्मध्यान ही होता है, ऐसा स्वयं ही समझमें आजाता है, इसके लिये अप्रमत्त शब्द सूत्रमें देनेकी क्या आवश्यकता है, सो समझ में नहीं आया। इसके सिवाय चौथे पाँचवें छट्टे गुणस्थानमें भी धर्मध्यान होता है । २- दिगम्बर - सम्प्रदाय के अनुसारश्रुतकेवीके श्रेण्यारोहण करने के पूर्व धर्मध्यान और श्रेण्यारोहण करनेपर शुक्लध्यान ही होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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