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________________ सूत्र २३-२४ ।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४ १९ स्वयं ज्ञानको धारण करमा-ज्ञानाभ्यास करना मुख्यज्ञानविनय है, और अपनेसे अधिक विद्वान् या बहुश्रुतको आता हुआ देखकर उनके लिए खड़े होना, उनको उच्चासन देना आदि उपचरितविनय है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदिके विषयमें भी समझना चाहिये । गुणाधिकोंकी आज्ञानुसार अथवा इच्छानुसार प्रवृत्ति करना भी उपचरितविनय है । वैयावृत्त्य तपके भेदोंको गिनानेके लिये सूत्र कहते हैं सूत्र-आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानगणकुलसङ्घसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ __ भाष्यम्-वैयावृत्त्यं दशविधम् । तद्यथा-आचार्यवैयावृत्त्यम् उपाध्यायवैयावृत्त्यम् तपस्विवैयावृत्त्यम् शैक्षकवैयावृत्त्यम् ग्लानवैयावृत्त्यम कुलवैयावृत्त्यम् गणवैयावृत्त्यम् सवैयावृत्त्यम् साधुवैयावृत्त्यम् समनोज्ञवैयावृत्त्यमिति । व्यावृत्तभावो वैयावृत्त्यम् व्यावृत्तकर्म च। तत्राचार्यः पूर्वोक्तः पञ्चविधः। आचारगोचरविनयं स्वाध्यायं वाचार्यादनु तस्मादुपाधीयत इत्युपाध्यायः। सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहार्थ चोपाधीयते सङ्ग्रहादीन् वास्योपाधीयतइत्युपाध्यायः। द्विसन्यहो निम्रन्थ आचार्योपाध्यायसङ्ग्रहः, त्रिसंग्रहा निर्ग्रन्थी आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीसङ्ग्रहा। प्रवर्तिनी दिगाचार्येण व्याख्याता। हिताय प्रवर्तते प्रवर्तयति चेति प्रवर्तिनी। विकृष्टोप्रतपोयुक्तस्तपस्वी। अचिरप्रव्रजितः शिक्षयितव्यः शिक्षः शिक्षामर्हतीतिशैक्षो वा। ग्लानः प्रतीतः। गणःस्थविरसंततिसंस्थितिः। कुलमाचार्यसंततिसंस्थितिः। सङ्गश्चतुर्विधः श्रमणादिः। साधवः संयताः। संभोगयुक्ताः समनोज्ञाः । एषामनपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठफलकसंस्तारादिभिर्धर्मसाधनैरुपग्रहः शुश्रूषा भेषजक्रिया कान्तारविषमदुर्गोपसर्गेष्वभ्युपपत्तिरित्येतदादि बैयावृत्त्यम् ॥ ____ अर्थ-वैयावृत्त्यके दश भेद हैं जो कि इस प्रकार हैं-आचार्यवैयावृत्त्य उपाध्यायः वैयावृत्त्य तपस्विवैयावृत्त्य शैक्षकवैयावृत्त्य ग्लानवैयावृत्त्य गणवैयावृत्त्य कुलवैयावृत्त्य सङ्घवैयावृत्य साधुवैयावृत्त्य समनोज्ञवैयावृत्त्य । व्यावृत्त शब्दका अर्थ रहित होता है, और व्यावृत्तके भाव अथवा कर्मको वैयावृत्त्य कहते हैं । आचार्यके पाँच भेद हैं, जो कि पहले बताये जा चुके हैं, आचारविषयक विनय करनेको अथवा आचार्यके समीप स्वाध्याय पाठ आदि करनेको आचार्यविनय कहते हैं । जिनके निकट रहकर अध्ययन किया जाय उनको उपाध्याय कहते हैं। जो संग्रह उपग्रह और अनुग्रहके लिये संग्रहादिको पढ़ावें, अथवा जिनके पास संग्रहादिक पढ़ें, उनको उपाध्याय कहते हैं । आचार्यसंग्रह और उपाध्यायसंग्रह इस तरह द्विसंग्रह निर्ग्रन्थ माने हैं, और आचार्यसंग्रह उपाध्यायसंग्रह तथा प्रवर्तिनीसंग्रह इस प्रकार त्रिसंग्रहानिर्ग्रन्थी मानी है । प्रवर्तिनीका आचार्यने दिङ्मात्र-एकदेशरूप ही व्याख्यान किया है। जो हितमार्गमें स्वयं प्रवृत्त हो, तथा औरोंको भी जो प्रवृत्त करे, उसको प्रवर्तिनी कहते हैं । उत्कृष्ट और उग्र तपके करनेवालेको तपस्वी कहते हैं । जो नवीन दीक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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