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________________ सूत्र १९ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ४१३ अर्थ — अवम शब्द ऊन न्यून आदि शब्दोंका पर्यायवाचक है । जिसका अर्थ क या खाली ऐसा होता है । अवम - खाली है, उदर- पेट जिसका उसको अथवा खाली पेटको कहते हैं अवमोदर । अवमोदरका भाव - खाली पेट रहना इसको कहते हैं अवमौदर्य । उत्कृष्ट और नघन्यको छोड़कर मध्यम कवलकी अपेक्षासे अवमौदर्य तप तीन प्रकारका हुआ करता है । यथा - अल्पाहारावमौदर्य उपाधव मौदर्य और प्रमाणप्राप्त से किंचिदून अवमौदर्य । कवलका प्रमाण यहाँपर बत्तीस कवलसे पहलेका ग्रहण करना चाहिये । भावार्थ - आगममें साधुओं के आहारका प्रमाण बताया है । मुमुक्षु साधुओंको उस हिसाब से ही आहार ग्रहण करना चाहिये । वह प्रमाण इस प्रकार है, कि — पेटके चार भागमें से दो भाग आहारके द्वारा एक भाग जलके द्वारा और शेष चतुर्थ भाग वायुके द्वारा पूर्ण करना चाहिये । साधुओं को ज्यादः से ज्यादः बत्तीस कवल - ग्रास आहार लेना चाहिये । एक ग्रासका प्रमाण एक हजार चावल है'। इसी हिसाब से एक ग्रासे और बत्तीस ग्रासको छोड़कर मध्यके दो से लेकर इकतीस ग्रास तकका आहार लेना इसको अवमौदर्य तप कहते हैं । वह तीन भागों में विभक्त है । जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है । दो चार छह आदि अल्प ग्रास लेने को अल्पाहारावमौदर्य कहते हैं। आधेके करीब पंद्रह सोलह ग्रास लेनेको उपाधवमौदर्य कहते हैं। और बत्तीस के पहले पहले इकतीस ग्रास तक के आहारको प्रमाण प्राप्तसे किंचिदून अवमौदर्य कहते हैं ॥ २ ॥ भाष्यम् - वृत्तिपरिसंख्यानमनेकविधम् । तद्यथा - उत्क्षिप्तान्तप्रान्तचर्यादीनां सक्तुकुल्माषौदनादीनां चान्यतममभिगृह्यावशेषस्य प्रत्याख्यानम् ॥ ३ ॥ अर्थ – वृत्तिपरिसंख्यान तप अनेक प्रकारसे हुआ करता है । जैसे कि उत्क्षिप्त अन्त प्रान्तचर्या आदिमेंसे संकल्पित के अनुसार मिलनेपर आहार ग्रहण करना अन्यथा नहीं, इसी प्रकार सत्तू, कुल्माष-उर्द कांजी - खट्टा माँ आदिमेंसे किसी भी अभिगृहीत्-स्वीकृत कियेका ग्रहण करना और अवशेषका त्याग करना इसको वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं । I भावार्थ - आहार के लिये निकलते समय कोई भी अटपटा नियम लेनेको वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं । जैसे कि ऊपरको उठी हुई या शिरपर रक्खी हुई अमुक वस्तु दृष्टिगत होगी तो आहार ग्रहण करेंगें, अन्यथा नहीं, अमुक अमुक दिशाकी तरफ जाते समय आहार मिलेगा 'तो लेंगे नहीं तो नहीं, अथवा अमुक वस्तु आहार में मिलेगी, तो लेंगे नहीं तो नहीं । इसी तरह वृत्तिपरिसंख्यान अनेक प्रकारसे हुआ करता है । इस तपके करनेवाला परिसंख्यात रीति से मिलनेवर आहारका ग्रहण करता है, शेषका परित्याग करता है ॥ ३ ॥ १ --- इस हिसाब से करीब ४२ तोले आहारका उत्कृष्ट प्रमाण होता है । क्योंकि ८ चावलकी १ रत्ती, ८ रत्तीका १ मासा और १२ मासेका १ तोला होता है । २ - अवमौदर्य में एक ग्रासका ग्रहण भी क्यों नहीं लिया स्रो समझमें नहीं आता । क्योंकि पूर्ण आहार न करनेको अवमौदर्य कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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