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________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ नवमोऽध्यायः दूसरा कर्मोकी निर्जरा । किन्तु संवरकी साधनतारूप भी इसका प्रयोजन है, जोकि प्रकरणगत होनेसे स्वयं ही समझ में आता है । ४०६ 1 जिनके निमित्तसे धर्माराधनमें - मोक्ष - मार्गके साधनमें अथवा कर्मोंकी निर्जराके उपायभूत तपश्चरणमें विघ्न उपस्थित हो सकता है, ऐसी पीड़ा विशेषको परीषह समझना चाहिये । यद्यपि ऐसी पीडाएं अनेक हो सकती हैं, परन्तु उन सबका जिनमें समावेश हो जाय, ऐसी पीडाएं कितनी हैं ? वे बाईस हैं। उनका ही नामोल्लेख करनेके लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाला भरोगतृणस्पर्श मलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥ ९ ॥ भाष्यम् - क्षुत्परीषहः, पिपासा, शीतम्, उष्णम्, दंशमशकं, नाग्न्यम्, अरतिः, स्त्रीपरीषहः चर्यापरीषहः, निषद्या, शय्या, आक्रोशः बध', याचनम्, अलाभः, रोगः, तृणस्पर्शः, मलम्, सत्कारपुरस्कारः, प्रज्ञाज्ञानेऽदर्शनपरीषह इत्येते द्वाविंशतिर्धर्मविघ्नहेतवो यथोक्तं प्रयोजनमभिसंधाय रागद्वेषौ निहत्य परीषहाः परिषोढव्या भवन्ति ॥ पञ्चानामेव कर्मप्रकृतीनामुदयादेते परिषहाः प्रादुर्भवन्ति । तद्यथा - ज्ञानावरणवेदनीयदर्शनचारित्रमोहनीयान्तरायाणामिति ॥ अर्थ - परीषह बाईस हैं - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, और अदर्शन । इन बाईसों परीषों को धर्ममें विघ्न उपस्थित करनेका कारण समझना चाहिये । क्योंकि इनके न जीतनेसे या इनके अधीन हो जानेपर रत्नत्रयरूप धर्मके आराधन करनेमें विघ्न उपस्थित होता है । अतएव जिस जिस परीषहके जीतनेका जो जो प्रयोजन बताया है, उसको ध्यान में रखकर - - लक्ष्य करके इन सभी परीषहोंको राग द्वेष छोड़कर जीतना चाहिये । भावार्थ - इष्ट विषयमें राग भावकी एकान्त प्रवृत्ति और उसी प्रकार अनिष्ट विषय में द्वेषकी प्रवृत्ति भी मुमुक्षुओंके लिये हेय - छोड़ने योग्य ही है । अतएव प्रकृत विषयमें भी यह बात ध्यान में रखकर परीषहों को वीतरागता के साथ सहन करना चाहिये । यथा क्षुधाको अनिष्ट - समझकर उसके शमन करनेमें भी प्रवृत्त न होना - उससे द्वेष करना अथवा उसको इष्ट मानकर उसके शमन करनेमें राग भावके वशीभूत होकर अयोग्य उपायका भी आश्रय लेना अनुचित है । अतएव दोनों भावोंका पहजय कहा जा सकता है । इसी लिये विधिपूर्वक उपाय न मिलनेपर उसके वशीभूत न होना - मनमें परित्याग होनेसे ही वास्तव में परी - क्षुधाका शमन करना किन्तु योग्य तलमलाहट - गृद्धि - चिन्ता आदिका न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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