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________________ सूत्र १२ ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३७१ उदयसे शरीर न तो रुई सरीखा हलका और न लोहे सरीखा भारी बने, उसको अगुरुलघुनामकर्म कहते हैं । जिसके निमित्तसे अपने ही शरीरके अङ्ग और उपांगोंका घात हो, अथवा जिसके द्वारा अपने ही पराक्रम विजय आदिका उपघात हो, उसको उपघातनामकर्म कहते हैं। जिसके निमित्तसे दूसरेको त्रास हो, अथवा दूसरेका घात हो, उसको पराघातनामकर्म कहते हैं। जिसके निमित्तसे शरीरमें आतपकी सामर्थ्य प्राप्त हो, उसको आतपनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे शरीरमें प्रकाशकी सामर्थ्य प्रकट हो, उसको उद्योतनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे श्वासोछासके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको ग्रहण करनेकी सामर्थ्य उत्पन्न हो, उसको उच्छासनामकर्म कहते हैं । जिसके निमित्तसे आकाशमें गमन करनेकी योग्यता प्राप्त हो, उसको विहायोगतिनामकर्म करते हैं। यह योग्यता तीन प्रकारकी हुआ करती है-लब्धिप्रत्यय, शिक्षाप्रत्यय, और ऋद्धिप्रत्यय ।। . नामकर्मकी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका अभिप्राय इस प्रकार है• जिसके उदयसे प्रत्येक जीवका शरीर भिन्न भिन्न बने, उसको प्रत्येकशरीरनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे अनेक जीवोंका एक ही शरीर बने, उसको साधारणशरीरनामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे द्वीन्द्रियसे लेकर पश्चेन्द्रियतककी अवस्था प्राप्त हो, उसको त्रसनामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे पूर्वोक्त पाँच स्थावरों पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पतिकी दशा प्राप्त हो, उसको स्थावरनामकर्म कहते हैं। जिसके निमित्तसे सौभाग्य प्राप्त हो, उसको सुभगनामकर्म कहते हैं । जिसके निमित्तसे दौर्भाग्य प्राप्त हो, उसको दुर्भगनामकमें कहते हैं । जिसके निमित्तसे अच्छा स्वर प्राप्त हो, उसको सस्वर और जिसके जिसके निमित्तसे अशभ स्वर प्राप्त हो, उसको दुःस्वरनामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे शुभ भाव और शोभा तथा माङ्गल्य प्राप्त हो, उसको शुभनामकर्म कहते हैं । इसके विपरीत अवस्था जिससे प्राप्त हो, उसको अशभनामकर्म कहते हैं। जिससे ऐसा शरीर प्राप्त हो, जो न दूसरेको रोक सके, या न दुसरेसे रुक सके, उसको सूक्ष्मनामकर्म और जिसके निमित्तसे इसके विपरीत स्वभाववाला शरीर प्राप्त हो, उसको बादरनामकर्म कहते हैं। जिसके निमित्तसे आत्माकी क्रिया समाप्ति हो, उसको पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, प्राणापानपर्याप्ति, और भाषापर्याप्ति । शरीर इन्द्रिय वचन मन और श्वासोच्छासके योग्य स्कन्ध• रूप पुद्गल द्रव्यका जिसके द्वारा आहरण-ग्रहण हो, ऐसी क्रियाकी जिसके द्वारा परिसमाप्ति हो, उसको आहारपर्याप्ति कहते हैं । गृहीत पुद्गलस्कन्धोंको शरीररूपमें स्थापित करनेवाली १-जिसके उदयसे ऐसे अंगोपांग बनें, कि जिनसे अपना ही घात हो । २--जिसके उदयसे, ऐसे अगोपाङ्ग बने जो दूसरेका घात करें । ३-जिसका मूल टंडा हो, और प्रभा उष्ण हो, उसको आतप कहते हैं । ४-जिसका मूल भी ठंडा हो और प्रभा भी ठंडी हो, उसको उद्योत कहते हैं। ५-दिगम्बर-सम्प्रदायमें छह भेद ही माने हैं । एक मनःपर्याप्ति भी मानी है । जैसा कि भाष्यकारने भी एकीयमतसे उल्लेख किया है। इनके अर्थकी विशेषता गोम्मटसारके पर्याप्ति अधिकार में देखनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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