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· कारिकाः ।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । वर्णन किया जायगा। क्योंकि इस ग्रंथका “ तत्त्वार्थाधिगम ” यह नाम अन्वर्थ है। इस प्रकार ग्रंथकारने ग्रंथ बनानेकी प्रतिज्ञा करते हुए उसका नाम विषय स्वरूप प्रमाण और प्रामाणिकताको भी बता दिया है। तथा “ शिष्यहितम् ' इस शब्दके द्वारा उसका प्रयोजन
और उसकी इष्टता तथा शक्यानुष्ठानता भी प्रकट कर दी है। अर्थात् इस ग्रंथके बनानेका ख्याति लाभ पूजा आदि प्राप्त करना मेरा हेतु नहीं है, केवल श्रोताओंका हित करना, इस भावनासे ही मैंने यह ग्रंथ बनाया है। और इसके पढ़ने तथा सुनने सुनानेसे साक्षात् तत्त्वज्ञान और परम्परया मोक्ष तकका जो फल है, वह मुमुक्षुओंको इष्ट है, तथा उसका सिद्ध करना भी शक्य है ।
इस ग्रंथकी रचना जिनके उपदेशानुसार की जा रही है, और जिन्होंने अनन्त प्राणिगणोंका अनुग्रह (दया) करनेके लिये तीर्थका प्रवर्तन किया, उनके प्रति ग्रंथकी आदिमें कृतज्ञता प्रकट करना भी आवश्यक है। इसके सिवाय मंगल-क्रिया किये विना ही कोई भी कार्य करना आस्तिकता नहीं है। यही कारण है, कि आचार्यने यहाँपर वर्धमान भगवान्को नमस्कार रूप मंगल क्रिया--मंगलाचरण करके ही ग्रंथरचनाकी प्रतिज्ञा की है।
मैंने यहाँपर जिन भगवान्के वचनके एकदेशका ही संग्रह करना क्यों चाहा है, अथवा उनके सम्पूर्ण वचनोंका संग्रह करना कितना दुष्कर है, इस अभिप्रायको आगेकी कारिकाओंमें ग्रंथकार प्रकट करते हैं
महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रंथभाष्यपारस्य ।
कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ॥ २३ ॥ शिरसा गिरि बिभत्सेदुचिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोाम् । प्रतितीपेच समुद्रं मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ॥ २४ ॥ व्योम्नीन्दुं चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेचरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ २५ ॥ खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिभूषेच्च भास्करं मोहात ।
योऽतिमहाग्रन्थार्थ जिनवचनं संजिघृक्षेच्च ॥ २६ ॥ अर्थ-जिनभगवान्के वचन बड़े भारी समुद्रके समान महान् और अत्यन्त उत्कृष्ट-गम्भीर विषयोंसे युक्त हैं, क्या उनका कोई भी संग्रह कर सकता है? अथवा क्या उनकी कोई भी प्रतिकृति-नकल भी कर सकता है ? कोई दुर्गम ग्रंथोंकी रचना या निरूपणा करनेमें अत्यंत कुशल हो, तो वह भी उसका पार
१--" मंगलनिमित्तहेतुप्रमाणनामानि शास्त्रकर्तृश्च । व्याकृत्य घडपि पश्चात् व्याचष्टां शास्त्रमाचार्यः" इस नियमके अनुसार ग्रंथकी आदिमें छह बातोंका उल्लेख करना आवश्यक है।
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