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________________ ३१४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽध्यायः अर्थ-संयम विरति और व्रत ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं । इसका लक्षण आगे चलकर “हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहम्यो विरतिव्रतम् " ( अ० ७ सूत्र १ ) इस सूत्रके द्वारा बतायेंगे, कि हिंसा आदि पापोंसे उपरति होनेको व्रत कहते हैं। इस व्रतके राग सहित धारण करनेको सरागसंयम कहते हैं । संयमासंयम देशविरति और अणुव्रत ये तीनों शब्द पर्यायवाचक हैं। इस विषयमें भी आगे चलकर “ देशसर्वतोऽणुमहती" (अ० ७ सूत्र २) इस सूत्र द्वारा बतावेंगे, कि हिंसादिके, एक देश--आंशिक त्यागको देशव्रत और सर्वथा त्यागको सर्ववत अथवा महाव्रत कहते हैं । पराधीनता-किसीके वशमें पड़कर अथवा किसीके अनुरोध-दबाबसे आहारादिका निरोध होना और अकुशल निवृत्ति-आहारादिके छट जानेले दुःख न माननेको अकामनिर्जरा कहते हैं। बाल और मूढ शब्द भी समानार्थ हैं । उसके तपको बालतप कहते हैं। अर्थात् अग्निमें प्रवेश करना, वायुभक्षण करके रहना, पर्वतसे गिरना, नदी नद समुद्रादिमें प्रवेश करना आदि मिथ्यादृष्टियोंके ज्ञानहीन तप करनेको बालतप कहते हैं। इस प्रकारसे ये सब-सरागसंयम और संयमासंयम आदि देव आयुके आस्रव हुआ करते हैं। भावार्थ-इनमेंसे किसी भी कारणके मिलनेपर देवायुका आस्रव हो सकता है। भाष्यम्-अथ नाम्नः क आस्रव इति ? अत्रोच्यते___ अर्थ--आयुके अनन्तर नामकर्म है। अतएव क्रमके अनुसार उसके आस्रव बताने चाहिये । इमलिये कहिये कि किन किन कारणोंसे नामकर्मका आस्रव होता है ? उत्तर-नामकर्मके दो भेद हैं-अशुभ और शुभ । इनमेंसे अशुभनामकर्मके बंधके कारण इस प्रकार हैं सूत्र--योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ॥ भाष्यम्-कायवाङ्मनोयोगवकता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न आस्रवो भवतीति ॥ अर्थ-शरीर वचन और मन इनके द्वारा होनेवाले योगकी वक्रता-कुटिलता या विषमता, और विसंवाद ये अशुभनामकर्मके आस्रव हैं। भावार्थ--मन वचन कायकी सरल-एकसी क्रिया न होकर विषम हो, मनके विचार कुछ और हों, और वचनसे कहे कुछ और, तथा शरीरसे कुछ और ही चेष्टा करे तो ऐसा करनेसे' तथा विसंवाद-साधर्मियोंके साथ झगड़ा करने, या अन्यथा प्रवृत्ति करनेसे अशुभनामकर्मका बंध हुआ करता है। क्रमानुसार शुभ नामकर्मके आस्रवोंको बताते हैं--- सूत्र--विपरीतं शुभस्य ॥ २२ ॥ भाष्यम्-एतदुभयं विपरीतं शुभस्य नाम्न आस्रवो भवतीति। किं चान्यत१---" मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्धिपापिनाम्" । (-क्षत्रचूडामणिः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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