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________________ २३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः अब ऐशान कल्पवासियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बताते हैं सूत्र-अधिके च ॥ ३५॥ . भाष्यम्-ऐशाने द्वे सागरोपमे अधिके परा स्थितिर्भवति ॥ अर्थ-ऐशान कल्पवासी देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो सागर प्रमाण है, और कुछ अधिक है। . भावार्थ-यह भी इन्द्र और सामानिकोंकी अपेक्षासे ही समझनी चाहिये । तथा इस सूत्रमें यद्यपि ऐशान कल्पका नाम नहीं लिया है, फिर भी यथासङ्ख्य-क्रमसे ऐशानका ही बोध होता है । क्योंकि पहले प्रस्तावनारूप सूत्रमें यथाक्रम शब्दका उल्लेख किया है । अन्यथा पहले सूत्रमें सौधर्म कल्पका सम्बन्ध भी नहीं लिया जा सकता । क्रमानुसार सनत्कुमार कल्पके देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बताते हैं सूत्र--सप्त सनत्कुमारे ॥ ३६ ॥ भाष्यम्-सनत्कुमारे कल्पे सप्त सागरोपमाणि परा स्थितिर्भवति ॥ अर्थ-सनत्कुमार कल्पमें रहनेवाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरकी है । यह भी स्थिति इन्द्रादिकोंकी है। __ माहेन्द्र कल्पसे लेकर अच्युत पर्यन्त कल्पोंके देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण बतानेके लिये सूत्र करते हैंसूत्र-विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च ॥३७॥ भाष्यम्-एभिर्विशेषादिभिरधिकानि सप्त माहेन्द्रादिषु परा स्थितिर्भवति । सप्तति वर्तते । तद्यथा-माहेन्द्रे सप्त विशेषाधिकानि । ब्रह्मलोकेत्रिभिरधिकानि सप्त दशेत्यर्थः । लान्तके सप्तभिरधिकानि सप्त चतुर्दशेत्यर्थः । महाशुक्रे दशभिराधिकानि सप्त सप्तदशेत्यर्थः । सहस्रारे एकादशभिरधिकानि सप्त अष्टादशेत्यर्थः। आनतप्राणतयोस्त्रयोदशभिरधिकानि सप्तविंशतिरित्यर्थः। आरणाच्युतयोः पञ्चदशभिरधिकानि सप्तद्वाविंशतिरित्यर्थः॥ ____अर्थ-पूर्व सूत्रसे इस सूत्रमें सप्त शब्दकी अनुवृत्ति आती है । अतएव इस सूत्रका अर्थ यह होता है, कि माहेन्द्र आदि कल्पवर्ती देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति इस सूत्रमें बताये गये विशेषादिकोंसे अधिक सात सागर प्रमाण क्रमसे समझनी चाहिये । अर्थात्-माहेन्द्र कल्पके देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरसे कुछ अधिक है । ब्रह्मलोकवर्ती देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अधिक सात सागर अर्थात् दश सागर प्रमाण है । लान्तक विमानवी देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरसे अधिक सात सागर अर्थात् चौदह सागर प्रमाण है । महाशुक्र विमानवर्ती देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरसे अधिक सात सागर अर्थात् सत्रह सागर प्रमाण है। सहस्रार कल्पवर्ती देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागरसे अधिक सातसागर अर्थात् अठारह सागर प्रमाण है। आनत और प्राणत कल्पके देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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