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________________ २३६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चतुर्थोऽध्यायः प्रकरण से पहले पहले यह अधिकार समझना । यहाँसे अब स्थितिका प्रकरण शुरू होता है । अतएव वैमानिकों का ही सम्बन्ध यहाँसे न समझकर सामान्य देवोंका सम्बन्ध समझना चाहिये । यदि यही बात है, तो देवोंके चार निकायोंमें से सबसे पहले देवनिकाय - भवनवासियों की स्थितिका ही पहले वर्णन करना चाहिये । सो ठीक है - भवनवासी भी दो भागों में विभक्त हैं- एक तो महामन्दरमेरुकी अवधिसे दक्षिण अर्धके अधिपति दूसरे उत्तर अर्ध अधिपति । स्थिति भी दो प्रकारकी है - जघन्य और उत्कृष्ट । इनमें से पहले दक्षिण अर्धके अभिपति भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण बतानेके लिये सूत्र करते हैं: सूत्र - भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् ॥ ३० ॥ भाष्यम् - भवनेषु तावद्भवनवासिनां दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धं परा स्थितिः । द्वयोर्यथोक्तयोर्भवनवासीन्द्रयोः पूर्वो दक्षिणार्धाधिपतिः पर उतरार्धाधिपतिः ॥ अर्थ - भवनवासियोंमें से जो दक्षिण अर्धके अधिपति हैं, उन भवनवासियों की उत्कृष्ट स्थिति डेढ़ पल्यकी है । पहले कहे अनुसार भवनवासियोंके दो इन्द्रोमेंसेचमर बलि आदिमेंसे पहले दक्षिण अर्धके अधिपति हैं, और दूसरे उत्तर अर्धके अधिपति हैं । भावार्थ — असुरेन्द्रोंकी स्थिति आगे चलकर इसी प्रकरण में बतावेंगे अतएव उस भेदको छोड़कर शेष भवनवासियोंमेंसे दक्षिण अर्धके अधिपतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति - आयुकाप्रमाण डेढ़ पल्य समझना चाहिये । क्रमानुसार उत्तर अर्धके अधिपतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण कितना है, सो बताते हैं सूत्र - शेषाणां पादोने ॥ ३१ ॥ भाष्यम् —- शेषाणां भवनवासिष्वाधिपतीनां द्वेपल्योपमे पादोने परा स्थितिः । के च शेषाः ? उत्तरार्धाधिपतय इति ॥ अर्थ —भवनवासियोंमेंसे शेष अधिपतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक पाद - चतुर्थ भाग कम दो पल्यकी उत्कृष्ट स्थिति है । प्रश्न - शेषसे किनको लेना या समझना चाहिये ? उत्तरमहामन्दरमेरुकी अवधि से उत्तर अर्धके जो अधिपति हैं उनको, अथवा यों कहिये कि पूर्वसूत्र में जिनका निर्देश किया जा चुका है, उनसे जो बाकी बचे, वे सभी भवनवासी शेष शब्दसे लिये जाते हैं । हाँ, असुरेन्द्रों की स्थितिका वर्णन आगे के सूत्र में स्वतन्त्ररूपसे करेंगे अतएव उत्तरार्धाधिपतियोंमेंसे असुरेन्द्र बलिका यहाँपर ग्रहण नहीं समझना । 1 भावार्थ - - असुरेन्द्र बलिके सिवाय सभी उतरार्धाधिपतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पौने दो पल की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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