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सूत्र १०-११-१२-१३।] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । संसारी जीवोंके और भी भेदोंको बतानेके लिये सूत्र करते हैं:
सूत्र-संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२॥ भाष्यम्-संसारिणो जीवा द्विविधा भवन्ति-त्रसाः स्थावराश्च । तत्र
अर्थ-फिर भी संसारी जीवोंके दो भेद हैं-एक त्रस दूसरे स्थावर । - भावार्थ-यहँसे चतुर्थ अध्यायके अंत तक संसारी जीवका ही अधिकार समझना चाहिये । मुक्त जीवोंका वर्णन दशवें अध्यायमें करेंगे । त्रस और स्थावर ये भी संसारी जीवोंके ही दो भेद हैं । त्रसनामकर्मके उदयसे जिनके सुख दुःखादिका अनुभव स्पष्ट रहता है, उनको त्रस कहते हैं, और जिनके स्थावरनामकर्मके उदयसे उनका अनुभव म्पष्टतया नहीं होता, उनको स्थावर कहते हैं । कोई कोई इन शब्दोंका अर्थ निरुक्तिके अनुसार ऐसा करते हैं, कि जो चलता फिरता है, वह त्रस और जो एक जगहपर स्थिर रहे, वह स्थावर । परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेसे वायुकायको भी त्रस मानना पड़ेगा, तथा बहुतसे द्वीन्द्रियादिक भी जीव ऐसे हैं, जो कि एक ही जगहपर रहते हैं, उनको स्थावर कहना पड़ेगा।
इन दो मेदोंमें परस्पर संक्रम भी पाया जाता है-त्रस मरकर स्थावर हो सकते हैं, और स्थावर मरकर त्रस हो सकते हैं । परन्तु इनमें त्रस पर्याय प्रधान है। क्योंकि उनके सुख दुःखादिका अनुभव स्पष्ट होता है।
स्थावरोंके भेद बतानेके लिये सूत्र कहते हैं:
सूत्र-पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरीः ॥ १३ ॥ भाष्यम्-पृथ्वीकायिकाः, अकायिकाः, वनस्पतिकायिकाः इत्येते त्रिविधाः स्थावरा जीवा भवन्ति । तत्र पृथ्वीकायिकोऽनेकविधः शुद्धपृथिवीशर्कराबालुकादिः । अप्कायोऽनेकविधः हिमादिः । बनस्पतिकायोऽनेकविधः शैवलादिः।
१--" परिस्पष्टसुखदुःखेच्छाद्वेषादिलिङ्गास्त्रसनामकर्मोदयात् त्रसाः । अपरिस्फुटसुखादिलिङ्गाःस्थावरनामकर्मोदयात् स्थावराः ।" इति सिद्धसेनगणिटीकायाम् । २--त्रस्यन्तीति त्रसाः, स्थानशीलाः स्थावराः ॥ ३-यद्यपि आगे चलकर सूत्र १४ में अग्निकाय और वायुकायको त्रस लिखा है, परन्तु वह केवल क्रियाकी अपेक्षासे वैसा लिखा है, वस्तुतः कर्मकी अपेक्षासे वे दोनों स्थावर हैं, यह बात भी ग्रंथकारको इष्ट है । इसी लिये श्रीसिद्धसेनगणीने अपनी टीकामें लिखा है, कि “ अतः क्रियां प्राप्य तेजोवाय्योस्त्रसत्वं,......लब्ध्या पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः सबै स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावरा एव ।"
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