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आचारदिनकर (खण्ड-४)
55 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि गया है - "कोई करोड़ सोने की मुद्राएँ प्रतिदिन दान में दे, अथवा उत्तुंग शिखरयुक्त जिनमंदिर बनवाए, तो भी उसे उतना पुण्य नहीं मिलता, जितना पुण्य सामायिक करने से मिलता है।'
करोड़ों वर्षों तक तपश्चरण की निरन्तर साधना करने वाला जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर पाता, उन कर्मों को समभावी साधक कुछ ही क्षणों में नष्ट कर लेता है। कर्म से लिप्त जीव भी इस सामायिक व्रत की साधना के माध्यम से निश्चित रूप से आत्मा को जान लेता है। विभिन्न साधु-जनों एवं शलाका पुरुषों द्वारा इस सामायिक-व्रत का आचरण किया गया है। सामायिक का आचरण करने से, सामायिक की साधना से रागादि परिणाम ध्वस्त हो जाते हैं तथा योगीजन आत्मा के परमात्मस्वरूप का दर्शन करते हैं, अर्थात् स्वस्वरूप का दर्शन करते हैं। स्वस्वरूप में स्थित समभाव के साधक साधुओं के प्रभाव से हमेशा एक-दूसरे से वैर रखने वाले जन्तु भी परस्पर स्नेही बन जाते हैं।
स्वाध्याय चार प्रकार का होता है - १. वाचना २. पृच्छना ३. आम्नाय एवं ४. आगम। सप्ततत्त्वों एवं जिनाज्ञारूप जिन-आगम की परिपाटियों के प्रकथन को वाचना कहते हैं। बहुश्रुत गुरु द्वारा आगम का अर्थ जानने एवं उससे सम्बन्धित प्रश्न पूछने को पृच्छना कहते हैं। गुरु परम्परा से सूत्र के अर्थ का अभ्यास करने को आम्नाय कहते हैं। सर्वरहस्यों से गर्भित सूत्रपाठों को आगम कहते हैं। इस प्रकार सामायिक का काल चतुर्विध स्वाध्याय द्वारा परिपूर्ण करते हैं। परमेष्ठीमंत्र का जाप तो सर्वदोषों का, अर्थात् पापों का नाश करने वाला है। वह इस प्रकार है -
___नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं, . एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं । भावार्थ -
अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सभी साधुओं को नमस्कार - इन पाँच (परमेष्ठियों) को किया गया
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