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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
407 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि वाचनाचार्य - संस्कार - इसमें आचार्य पद दिए बिना वाचनादान की अनुज्ञा या अनुमति प्रदान की जाती है। इस संस्कार में गुरु (आचार्य) द्वारा शिष्य को पूर्ण रूप से वाचनादान की अनुमति प्रदान की जाती है । यह वाचनाचार्य - संस्कार का सार है ।
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उपाध्यायपदारोपण-संस्कार उपाध्यायपदारोपण - संस्कार मंत्रसहित किया जाता है, क्योंकि वह शिष्यों को द्वादशांगी का अध्ययन करवाता है । - यह उपाध्याय - पदारोपण - संस्कार का सार है । आचार्यपदारोपण-संस्कार जो मुनि आचार्य - पद को प्राप्त करता है, उसके लिए निर्देश दिए गए हैं कि वह सर्वप्रभुत्वशाली, ज्ञानी, तपस्वी, सज्जन, गुणवान्, बोध देने वाला, विशेष लब्धि को प्राप्त कर सके ऐसी योग्यता वाला, क्षमावान्, सर्व योग्यताओं को धारण करने वाला तथा सामर्थ्यशाली होना चाहिए । इसका कारण यह है कि इस प्रकार के गुणों से युक्त साधु को ही मंत्र - आराधना के यह आचार्यपदारोपण - संस्कार का सार है । प्रतिमोहन- संस्कार पूर्णरूप से योगसिद्धि, अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का अनुशासन निरागता एवं विषयों के परित्याग के उद्देश्य से साधु-साध्वियों को प्रतिमोद्वहन - संस्कार करने के लिए कहा गया है । यह प्रतिमोद्वहन - संस्कार का सार है ।
योग्य कहा गया है ।
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व्रतदान
व्रतिनीव्रतदान ( साध्वी की दीक्षा - विधि), प्रवर्तिनीपद-प्रदान, महत्तरापद - प्रदान - संस्कार व्रतिनी ( साध्वियों) को प्रवर्तिनी - पदारोपण तथा महत्तरा - पदारोपण - संस्कार की सम्पूर्ण प्रक्रिया साधु के समान ही जाननी चाहिए, क्योंकि साधु एवं साध्वियों का चारित्र आदि एक समान ही होता है ।
- साध्वी की दिवस एवं रात्रि की चर्या साधुसाधु एवं साध्वियों की दिवस एवं रात्रि की जो चर्या बताई गई है, वह संयम के निर्वाह के लिए तथा हठाग्रह को नष्ट करने के लिए है । इस संस्कार में सर्वप्रथम जो उपधि, धर्मध्वज (रजोहरण) आदि के सम्बन्ध में बताया गया है, वह महाव्रतों की आराधना के लिए संयमोपकरण है, उसे परिग्रह नहीं मानना चाहिए । यह साधु-साध्वी के दिवस - रात्रिचर्या सम्बन्धी संस्कार का सार है ।
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