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आचारदिनकर (खण्ड-४) 405 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आरम्भ जीवों की हिंसा का सूचक है। पुनः, संभोग-क्रिया में अनेक प्राणियों का घात होता है, अतः मैथुन सभी पापकों का मूलमार्ग है, इसलिए उससे विरत होना आवश्यक है। व्रतदान, अर्थात् दीक्षा के पूर्व इस संस्कार के माध्यम से उसके ब्रह्मचर्य का परीक्षण किया जाता है। ब्रह्मचर्यव्रत के बिना, अर्थात् उसके अभाव में व्यक्ति गृहस्थधर्म को प्राप्त करता है। - यह ब्रह्मचर्यव्रत-संस्कार का सार है।
क्षुल्लक-संस्कार - क्षुल्लकदीक्षा नामक जो संस्कार किया जाता है, उसका कारण बताते हुए कहा गया है कि पंचमहाव्रतों को धारण करने के लिए उसकी योग्यता का परीक्षण क्षुल्लकदीक्षा-संस्कार द्वारा किया जाता है। दीक्षा ग्रहण करके यदि वह उत्तम प्रकार से व्रत का आचरण नहीं करे, तो वह उसके लिए पापकारी तथा अपयश प्रदान करने वाला होता है, अतः क्षुल्लकदीक्षा के माध्यम से उसकी क्षमता की पूर्व परीक्षा हो जाती है। मुनिरूप में दीक्षित न होने के कारण उन्हें गृहस्थों के संस्कार करवाने की अनुमति है। - यह क्षुल्लकदीक्षाविधि-संस्कार का सार है।
प्रव्रज्या-संस्कार - जो प्रव्रज्या-संस्कार किया जाता है, वह एक तरह से सामायिक-चारित्र का ग्रहण है। इसमें यावज्जीवन सावध व्यापारों का पूर्ण रूप से त्याग किया जाता है। इस संस्कार में दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों का वर्णन उनको दीक्षित नहीं करने के उद्देश्य से किया गया है, क्योंकि वे व्रत का निर्वाह नहीं कर सकते हैं। जो व्यक्ति शिखा एवं सूत्र का त्याग करता है, वही व्यक्ति इस सामायिक-चारित्ररूप व्रत को धारण करता है। शिखा एवं सूत्र का त्याग करने से सब प्रकार के व्यावहारिक दायित्वों का भी वर्जन हो जाता है, अर्थात् वह सांसारिक-दायित्वों से मुक्त हो जाता है। - यह प्रव्रज्या-संस्कार का सार है।
उपस्थापन-संस्कार - उपस्थापना की जो नन्दीक्रिया की जाती है, वह महाव्रतों के ग्रहण करने की सूचक है। महाव्रतों को ग्रहण करने एवं उनके पालन को ही व्रतग्रहण या उपस्थापना-विधि कहते हैं। दीक्षा-संस्कार में मात्र सामायिकव्रत का ग्रहण करवाया जाता है, जबकि उपस्थापना-संस्कार में महाव्रतों का ग्रहण करवाया जाता है।
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