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________________ मा गय के अशुभ, अर्थात आचारदिनकर (खण्ड-४) 394 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि मुनष्य है। ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, धनिष्ठा, आश्लेषा, कृत्तिका, चित्रा, मघा एवं विशाखा- इन नक्षत्रों का गण देव है। गुरु, शिष्य आदि में स्वगण हो, तो परम प्रीति, देव एवं मनुष्य-गण हो, तो मध्यम प्रीति, देव और राक्षस-गण हो, तो वैर तथा मनुष्य एवं राक्षस-गण हो, तो मृत्यु होती है। मकर, वृषभ, मीन, कन्या, वृश्चिक एवं कर्क - इन राशियों का अष्टक होने पर शत्रुता होती है। मेष, मिथुन, धनु, सिंह, कुंभ एवं तुला- इन राशियों का अष्टक मित्राष्टक, अर्थात् मित्रता को प्रदान करने वाला होता है। वैर- षटकाष्टक, अर्थात् मेष और कन्या, तुला और मीन, धनु और वृषभ, मिथुन और वृश्चिक, कुंभ और कर्क एवं सिंह और मकर राशियों का षटकाष्टक मृत्यु को देने वाला होता है। नव पंचक राशियों में, अर्थात् मीन और कर्क, वृश्चिक और कर्क, मिथुन और कुंभ एवं कन्या और मकर के नव पंचक में किया गया कार्य कलहकारी होता है। द्विद्वादश के अशुभ, अर्थात् मेष-वृष, मिथुन-कर्क, सिंह-कन्या, तुला-वृश्चिक, धन-मकर एवं कुंभ-मीन राशियों में किया गया कार्य दारिद्रकारी होता है तथा शेष राशियों में किया गया कार्य उत्तरप्रीति को प्रदान करने वाला होता है। गुरु एवं शिष्य का तारा परस्पर तीन, पाँच एवं सात हो, अर्थात् गुरु के जन्म-नक्षत्र से शिष्य के जन्म-नक्षत्र तक और शिष्य के जन्म-नक्षत्र से गुरु के जन्म-नक्षत्र तक गिनें - इस प्रकार जो अंक आएं, उसमें नौ का भाग दें, जो शेष अंक ३, ५ या ७ बचे, तो वह अशुभ होता है, अतः उसका वर्जन करना चाहिए तथा इसी प्रकार जन्म-नक्षत्रों की नाड़ी एक समान हो, तो उसका भी वर्जन करना चाहिए। इस प्रकार १. योनि २. वर्ग ३. लभ्यालभ्य ४. गण एवं ५. राशिभेद देखकर शुद्ध नाम रखना चाहिए। साधुओं के नाम के पूर्वपद निम्नलिखित कहे गए हैं - देव, गुण, शुभ, आगम, जिन, कीर्ति, रमा, चन्द्र, शील, उदय, धन, विद्या, विमल, कल्याण, जीव, मेघ, दिवाकर, मुनि, त्रिभुवन, अंभोज, सुधा, तेज, महा, नृप, दया, भाव, क्षमा, सूर, सुवर्ण, मणि, कर्म, आनंद, अनंत, धर्म, जय, देवेन्द्र, सागर, सिद्धि, शान्ति, लब्धि, बुद्धि, सहज, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर, विजय, चारू, राम, सिंह, (मृगाधिप), मही, विशाल, विबुध, विनय, नय, सर्व, प्रबोध, सह-कन्या, तुला- राशियों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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