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आचारदिनकर (खण्ड-४) 374 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि का छेदन करना, किन्तु उन्हें देश- निष्कासन का दण्ड देना। देव, द्विज, गुरु एवं मुनियों का हमेशा सिंहासन से उठकर तथा उन्हें नमस्कार आदि करके सम्मान करना। धर्म, अर्थ एवं काम - इन तीनों पुरुषार्थों का संयोजन इस प्रकार से करना, जिससे कोई भी पुरुषार्थ एक-दूसरे से बाधित न हो। हमेशा प्रजा का पालन-पोषण एवं रक्षण करना। तुम्हें राजा, मंत्री एवं सेवकों द्वारा पीड़ित प्रजा का तत्काल संरक्षण करना चाहिए, अर्थात् उसमें क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। वंश-परम्परा से चले आ रहे व्यक्तियों को ही अंगरक्षक, सौविद (अन्तःपुर-रक्षक), मंत्री, दण्डनायक, सूपकार (रसोईया) एवं द्वारपाल के पद पर नियुक्त करना। तुम्हें शिकार, द्यूतक्रीडा (जुआ), वेश्या, दासी एवं परस्त्रीगमन, मदिरापान, कठोर वचन, अपव्यय का वर्जन करना चाहिए। इसी प्रकार अन्यायपूर्वक किसी का धन लेना, मौज-मस्ती हेतु भ्रमण करना, कठोर दण्ड देना, नृत्य, गीत एवं वाद्य में अत्यन्त संलग्न होना, दिन में अनवरत निद्रा लेना, पीठ पीछे किसी की निन्दा करना, व्यसनों में संलग्न होना - इन सब कार्यों का भी तुम सदैव वर्जन करना। नीर-क्षीरवत् उचित एवं अनुचित का निर्णय करना, उसमें कभी भी पक्षपात मत करना। कभी भी किसी कार्य को तुम उद्वेग-पूर्वक मत करना। स्त्री, लक्ष्मी, शत्रु, अग्नि, नीच व्यक्ति, मद्यपायी, मूर्ख एवं लालची व्यक्तियों का कभी भी विश्वास मत करना। देव, गुरु की आराधना तथा स्वप्रजाजनों के पालन-पोषण के कार्य को किसी अन्य को मत देना, अर्थात् उन्हें स्वयं ही करना। सुख के समय अहंकार मत करना तथा दुःख के समय धैर्य मत छोड़ना। राजा के ये दोनों प्रकार के लक्षण बुधजनों (प्रबुद्धकों) द्वारा बताए गए हैं। उसे ज्ञानार्जन में, दान में एवं अनुग्रह करने में जलाशय के समान गम्भीर और उदार होना चाहिए। उसे सम्पूर्ण पृथ्वी का उपभोग करते हुए अपने यश को फैलाना चाहिए। शत्रुवंशों का घात तथा मित्रजनों का पोषण करना चाहिए। अपनी एवं दूसरों की अपेक्षा रखे बिना सम्पूर्ण प्रजा का पालन-पोषण करना चाहिए। दुष्टों तथा प्रजा को पीड़ा देने वाले लोगों को, उसके राज्य की इच्छा रखने वालों को, देव एवं गुरु के प्रति शत्रुता रखने
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