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इनमें तप - विधि में अनेक ऐसे तपों का उल्लेख भी है, जो परवर्ती काल में विकसित हुए है और किसी सीमा तक हिन्दू परम्परा से प्रभावित भी लगते है। आचार्य वर्धमानसूरि ने इस ग्रन्थ के अन्त में प्रशासकीय दृष्टि से राजा, मन्त्री, सेनापति, राजकीय हस्ति, अश्व आदि की पदारोपण विधि दी है जो पूर्णतः लोकाचार से सम्बन्धित है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति पर हिन्दू परम्परा और लोकाचार का भी पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है ।
जिस प्रकार द्वितीय विभाग के कुछ अंशों के स्पष्टीकरण एवं परिमार्जन में हमें पूज्य मुनि प्रवरजम्बूविजयजी और पूज्य मुनि यशोविजयजी से सहयोग प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार इसके तृतीय खण्ड की प्रतिष्ठा विधि एवं चतुर्थ खण्ड की प्रायश्चित्त एवं आवश्यक विधि के सम्बन्ध में भी पूज्य मुनि प्रवर जम्बूविजयजी म.सा. का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार नक्षत्रशान्ति विधान एवं पदारोपण विधि के कुछ अंशों के स्पष्टीकरण में आदरणीय डॉ. मोहनजी गुप्त उज्जैन, उज्जैन के सुश्रावक बसंत जी सुराणा के माध्यम से उज्जैन के ज्योतिषाचार्य सर्वेश जी शर्मा एवं सुश्रावक रमेशजी लुणावत के माध्यम से महिदपुर के एक पण्डित जी का सहयोग प्राप्त हुआ है। यद्यपि जैन परम्परा के अनुरक्षण हेतु उनके सुझावों को पूर्णतया आत्मसात् कर पाना संभव नहीं था ।
मूलप्रति की अशुद्धता तथा वर्तमान में इसके अनेक विधि-विधानों के प्रचलन में न होने से या उनकी विधियों से परिचित न होने के कारण उन स्थलों का यथासंभव मैंने और पूज्या साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी ने अपनी बुद्धि के अनुसार भावानुवाद करने का प्रयत्न किया है, हो सकता है कि इसमें कुछ स्खलनाएँ भी हुई हो । विद्वत् पाठकवृन्द से यह अपेक्षा है कि यदि उन्हें इसमें किसी प्रकार की अशुद्धि ज्ञात हो तो मुझे या पूज्या साध्वी जी को सूचित करे । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत कृति में पूज्य वर्धमानसूरि ने कुछ अंश लौकिक परम्परा से यथावत् लिये है, जो जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है। ऐसे अंशों का अनुवाद आवश्यक नहीं होने से छोड़ दिया
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