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कठिनाईयाँ उपस्थित होती रही, अनेक बार साध्वी जी और मैं उन समस्याओं के निराकरण में निराश भी हुए फिर भी इस महाकाय ग्रन्थ का अनुवाद कार्य पूर्ण हो सका यह अति संतोष का विषय है। इस ग्रन्थ के प्रथम एवं द्वितीय खण्ड प्रकाशित होकर पाठकों के समक्ष आ चुके हैं। पूर्व में इस ग्रन्थ को मूलग्रन्थ के खण्डों के अनुसार तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना थी, किन्तु तृतीय खण्ड अतिविशाल होने के कारण इसे भी दो भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार अब यह ग्रन्थ चार खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। इसके तृतीय खण्ड में प्रतिष्ठा विधि, शान्तिक-कर्म, पौष्टिक-कर्म एवं बलि-विधान - इन चार विभागों को समाहित किया गया हैं तथा चतुर्थ खण्ड में प्रायश्चित्त-विधि, आवश्यक-विधि, तप-विधि एवं राजकीय पदारोपण-विधि - इन चार विधियों का समावेश किया गया है। जहाँ तक तृतीय खण्ड में उल्लेखित प्रतिष्ठाविधि, शान्तिककर्म, पौष्टिककर्म एवं बलिविधान का प्रश्न है इनका उल्लेख प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में प्रायः नहीं मिलता है, यहाँ तक कि आठवीं शती में हुए आचार्य हरिभद्र के काल तक भी कुछ संकेतों को छोड़कर प्रायः इनका अभाव ही है। इसके बाद परवर्ती कालीन जिन ग्रन्थों में इनके उल्लेख है, वे उल्लेख मूलतः वैदिक परम्परा से कुछ संशोधनों के साथ ग्रहीत प्रतीत होते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में ये विधि-विधान लगभग तेरहवीं शती से देखने को मिलते है। सम्भवतः दसवीं शती में सोमदेव के इस उल्लेख के बाद से कि जिससे सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रत दूषित न हो, वे सभी लौकिक विधि-विधान प्रमाण है - इस प्रवृत्ति को प्रश्रय मिला
और वैदिक एवं ब्राह्मण धारा में प्रचलित अनेक विधि-विधान क्वचित् संशोधनों के साथ यथावत् स्वीकार कर लिए गये। वर्धमानसूरि की प्रस्तुत कृति में वर्णित विधि-विधान भी इसी तथ्य के द्योतक है।
जहाँ तक चतुर्थ खण्ड में उल्लेखित प्रायश्चित्त-विधि, आवश्यक-विधि और तप-विधि का प्रश्न है ये तीनों विधियाँ आगम साहित्य में भी उल्लेखित है, यद्यपि प्रस्तुत कृति में उल्लेखित ये तीनों विधियाँ आगमों की अपेक्षा अधिक विकसित रूप में उल्लेखित हैं,
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