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आचारदिनकर (खण्ड-४) 365 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि कथनपूर्वक दण्डवत् प्रणाम करे। तत्पश्चात् गुरु शिष्य को अपने आसन के आधे भाग पर अपने दाईं ओर बैठाकर पूर्वोक्त रीति से अभिमंत्रित वासक्षेप डाले तथा प्रकट स्वर से निम्न वेदमंत्र बोले -
___ "ऊँ अहं नमोऽर्हतेऽर्हत्प्रवचनाय सर्वसंसारपारदाय सर्वपापक्षयंकराय सर्वजीवरक्षकाय सर्वजगज्जन्तुहिताय अत्रामुकपात्रेस्तु सुप्रतिष्ठितं जिनमतं नमोस्तु तीर्थंकराय तीर्थाय च शिवाय च शुभाय च जयाय च विजयाय च स्थिराय च अक्षयाय च प्रबोधाय च सुबोधाय च सुतत्वाय च सुप्रज्ञप्ताय च नमोनमः सर्वार्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यः सर्वस्मिन्प्राणिनि सुप्रतिष्ठितानि अणुव्रतानि षट्कर्मनिरतोस्त्वयं जन्तुः सक्रियोस्तु सद्गुणोस्तु षड्व्रतोस्तु सन्मतोस्तु सद्गतिरस्तु अर्ह ऊँ।।
वासक्षेप के पूर्व इस मंत्र को तीन बार बोले। तत्पश्चात् पूर्ववत् संघ को वासचूर्ण एवं अक्षत प्रदान करे तथा पौष्टिकदण्डक बोले। फिर गुरु शिष्य को आगे बैठाकर संघ के समक्ष इस प्रकार की अनुज्ञा दे -
___"हे वत्स ! तुम्हें दृढसम्यक्त्व को सदैव धारण करना चाहिए, साधुओं की उपासना करनी चाहिए, द्वादशव्रत का पालन करना चाहिए, गृहस्थ के षट्कर्म करना चाहिए, वेदागम का पुन-पुनः अभ्यास करना चाहिए, जिनमत में जिन कार्यों को वर्जित किया गया है, प्राणान्त होने पर भी उन कार्यों को नहीं करना चाहिए। गृहस्थों के जो षोडश संस्कार होते हैं, उनमें व्रतारोपण को छोड़कर शेष संस्कार तुम्हें करवाने चाहिए। साथ ही यदि यति (मुनि) अनुपस्थित है, तो व्रतारोपण भी करवा सकते हो। शान्तिककर्म, पौष्टिककर्म, प्रतिष्ठा, उद्यापन, बलिविधान और आवश्यक-विधि तथा योगोद्वहन को छोड़कर शेष तपोविधि, गृहस्थों के आचार्य आदि पदारोपण की विधि एवं गृहस्थों के प्रायश्चित्तत-विधान - ये सब कार्य तुम्हें सदैव करना चाहिए। इस प्रकार यतियोग्य कार्यों को छोड़कर शेष अन्य कार्यों का समाचरण तुम्हारे द्वारा किया जाना चाहिए। इस प्रकार की अनुज्ञा देकर उस शिष्य को तिलक करके बधाई दे।
उस समय गुरु स्वयं शिष्य को नमस्कार करे। संघ भी नमोस्तु वचनपूर्वक नवीनाचार्य को नमस्कार करे। इस विधि में उत्सव
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