________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) 363 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अथवा वासनिक्षेप करे। तत्पश्चात् वृद्ध गुरु पूर्ववत् साधु एवं श्रावकों को अभिमंत्रित वास एवं अक्षत प्रदान करे। तत्पश्चात् गुरु के "क्षमाक्षमणों से प्राप्त सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ - दोनों से गुरु (महाव्रतरूपी महत्) गुणों का वर्धन करते हुए संसार-सागर को पार करने वाले बनो" - इस प्रकार कहने पर सभी उस आचार्य पर वासचूर्ण एवं अक्षत निक्षेपित करें। तत्पश्चात् पूर्ववत् वन्दनक-विधि करें। इसके अतिरिक्त उपाध्याय, साधु आदि को गणानुज्ञा देते समय गण मुख्यत्व, अर्थात् गणानुज्ञा सम्बन्धी जो कथन है, उसे वाचनानुज्ञा-अधिकार से जानें।
पदारोपणाधिकार में यति के पदारोपण की यह विधि बताई गई हैं। अब विप्रों की पदारोपण-विधि बताते हैं -
विप्रों में आचार्य, उपाध्याय, स्थानपति एवं कर्माधिकारी - ये चार प्रकार के पदक्रम होते हैं। जैनगृहस्थ-ब्राह्मण-आचार्य-पदारोपण-विधि -
(आचार्य कैसा हो, अर्थात् आचार्य के गुणों को बताते हुए कहते हैं) - जैन ब्राह्मणों का आचार्य पवित्र कुल वाला, सम्यग्दृष्टि, द्वादशव्रत का धारक, अन्य देवों तथा अन्य लिंगियों को प्रणाम न करने वाला, उनके साथ संभाषण न करने वाला, उनकी प्रशंसा न करने वाला, सावद्य-व्यापार का त्यागी, दुष्प्रतिग्रह से रहित एवं नित्य नवकारसी आदि प्रत्याख्यान करने वाला होता है।
इसी प्रकार आगे पुनः उनके गुणों को बताते है -
जो स्वभाव से ही अल्पेच्छ हो (अल्पप्राप्ति में भी संतोष करने वाला हो), मितभाषी हो, जिनागम के सिवाय अन्य मिथ्या श्रुत को आदरपूर्वक नहीं पढ़ने वाला हो, नित्य धोए हुए वस्त्र धारण करने वाला हो, द्वादशव्रत का धारक हो, सम्यक् प्रकार से तत्त्व के अर्थ को जानने वाला हो, प्रमाण-ग्रन्थों का ज्ञाता हो, प्रायः सावद्य-योगों से विरत हो, मिथ्यादृष्टियों के साहचर्य का त्यागी हो, धीर हो, शान्तचित्तवाला हो, सद्गुणों से युक्त हो, सर्वशास्त्रों का ज्ञाता हो, प्रतिष्ठादि सर्वकर्म करने का अभ्यासी हो, प्रायः प्रत्याख्यान में रत हो, प्रायः प्रासुक-आहार करने वाला हो, नित्य स्नान करने वाला हो, दान्त
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org