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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
358 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि चौबीस लोकान्तिक देवों की आराधना के लिए चौबीस एकासन करे । फिर चौंसठ इन्द्र एवं इन्द्राणियों की आराधना के लिए चौंसठ - चौंसठ एकासन करे । तत्पश्चात् चौबीस शासन - यक्ष एवं यक्षिणियों की आराधना के लिए चौबीस - चौबीस एकासन करे । फिर दस दिक्पालों की आराधना के लिए दस एकासन करे । तत्पश्चात् नौ ग्रह और क्षेत्रपाल इन दस की आराधना के लिए चार एकासन करे। इसके बाद इन सबकी (सामूहिक ) आराधना के लिए एक उपवास करे । इस प्रकार इस तप में २ उपवास, ११ आयंबिल एवं २६४ एकासन आते हैं। इस तरह यह तप २७७ दिन में पूरा होता है ।
इस तप के उद्यापन में जिनालय में बृहत्स्ना विधिपूर्वक परमात्मा की पूजा करे। उपाश्रय में प्रतिष्ठा - विधि के अनुसार नंद्यावर्त्त पूजा करे । संघपूजा एवं संघवात्सल्य करे । इस तप के करने से परलोक, अर्थात् भविष्य में तीर्थंकर - नामकर्म का बंध होता है तथा इस लोक में सर्वऋद्धि एवं सर्वदेवों का सान्निध्य प्राप्त होता है । यह तप साधु' एवं श्रावक दोनों को करने योग्य आगाढ़-तप हैं। इस तप के यंत्र का न्यास अनुपलब्ध है ।
बृहत्नंद्यावर्त्त-तप, आगाढ़, कुल दिन- २७७
नाम नंद्या सौध ईशा श्रुत प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पंचम षष्ठ सप्तम अष्टम नवम दशम वर्त्त र्मेन्द्र नेन्द्र देवता वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय तप १ १ १ १ ८ २४ ए. १६ ए. २४ ६४ ६४ २४ २४ १० १० उप. आ. आ. आ. आ. ए. ए. ए. ए. ए. इन सबकी आराधना के लिए अंत में १ उपवास
ए. ए.
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६०. लघुनंद्यावर्त्त - तप
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लघुनंद्यावर्त्त तप की विधि इस प्रकार हैं - "लघोश्च नंद्यावर्त्तस्य, तपः कार्यं विशेषतः । तदाराधन संख्याभिरूद्यापनमिहादिवत् । । १ । । “
मूलग्रन्थ में यह तप साधुओं के लिए भी करणीय है - ऐसा उल्लेख मिलता है, जो हमारी दृष्टि में उचित नहीं है, क्योंकि नंद्यावर्त्त तप की विधि में देवी-देवताओं की आराधना के लिए भी तप किया जाता है। शास्त्रानुसार यतियों का गुणस्थान ६ / ७ वाँ होता है और देवी-देवताओं का गुणस्थानक चौथा होता है, अतः साधु अपने से नीचे के गुणस्थानकों में स्थित देवों की आराधना कैसे कर सकता है ?
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