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आचारदिनकर (खण्ड-४)
353 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ८४. परत्रपाली-तप -
परत्रपाली-तप की विधि इस प्रकार हैं - "पंचवर्षाणि वीरस्य, कल्याणकसमाप्तितः।
उपवासत्रयं कृत्वाः, द्वात्रिंशदरसांश्चरेत्।।१।।" परलोक के लिए पालने जैसे तप को परत्रपाली-तप कहते हैं। इस तप में दीपावली के दिन से आरम्भ करके प्रथम तीन दिन निरन्तर तीन उपवास (तेला) करे। तत्पश्चात् निरंतर बत्तीस नीवि करे। इस प्रकार पाँच वर्ष में यह तप पूर्ण होता है। कुछ आचार्य यहाँ एकान्तर उपवास करने के लिए भी कहते हैं। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
__ इस तप के परत्रपाली-तप, आगाढ़, दिन-३५ उद्यापन में हर वर्ष थाल में । उप. | नी. | नी. | नी. | नी. | नी. | नी.
| उ. नी. नी. नी. | नी. नी. | नी. | एक सेर लापसी की पाल
नी. नी. नी. नी. करके बीच में सुगंधित घी । नी. नी. नी. नी. नी. नी. नी. | से उसे पूर्ण करके । नी. | नी. नी. नी. नी. नी. नी. परमात्मा के आगे रखे। पाँचवे वर्ष के अन्तिम उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक परमात्मा की पूजा करे। संघवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से परलोक में सद्गति प्राप्त होती है। यह श्रावकों के करने योग्य आगाढ़-तप है।
८५. सोपान (पावड़ी)-तप -
सोपान (पावड़ी)-तप की विधि इस प्रकार है - “सप्ताष्टनवदशभिस्तद्गुणैस्तिथिसंक्रमैः।
दत्तिभिः पूर्यते चैव सोपान तप उत्तमं ।।१।।" मोक्षमार्ग पर आरोहण करने के लिए सोपान सदृश होने से इस तप को सोपान-तप कहते हैं। इस तप में चार प्रतिमाएँ वहन की जाती हैं - १. सात सप्तमिका २. आठ अष्टमिका ३. नौ नवमिका और ४. दस दसमिका।
सर्वप्रथम सात सप्तमिका-तप में सात दिवस की एक ओली - ऐसी सात ओली ४६ दिन में पूरी होती है। इसमें पहले सात दिन की
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