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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 349 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तथा गुरु को वस्त्र प्रदान करे। श्रीफल और अक्षत दण्ड के समीप रखे। दण्ड की जितनी मुष्टियाँ हो, उस परिमाण में विविध जाति के फल, मुद्रा, पकवान एवं रत्न आदि भी रखे। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से विपत्तियाँ दूर होती है। यह श्रावकों के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है - मोक्षदण्ड-तप, आगाढ़ २४ | उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ.. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. मुष्टि १/२/३ | ४/५/६/७/८/६/१०/१२/१३ १४ १५ १६/१७/१८/१६/२०/२१/२२/२३/२४ पा. पा.पा.पा.पा.पा.पा.पा.पा.पा.पा.पा. पा. पा. पा. पा.पा.पा.पा. पा.पा.पा. ७६. अदुःखदर्शी-तप - अदुःखदर्शी-तप की विधि इस प्रकार हैं - "शुक्लपक्षेषु कर्त्तव्याः क्रमात्पंचदशस्वपि। उपवासस्तिथिष्वेवं पूर्यते विधिनैव तत्।।१।।" जिससे दुःख देखना नहीं पड़े, अर्थात् जिस तप के करने से व्यक्ति को कभी दुःख का सामना नहीं करना पड़े, उसे अदुःखदर्शी-तप कहते हैं। इसमें प्रथम मास में शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को उपवास करे, फिर दूसरे मास में सुदी (शुक्ल पक्ष) द्वितीया को उपवास करे - इस प्रकार क्रमशः पन्द्रहवें मास में पूर्णिमा को उपवास करे। इस तरह कुल पंद्रह उपवास से यह तप पूरा होता है। यदि कोई तिथि भूल जाए, तो तप को फिर से प्रारम्भ करे। इस तप के उद्यापन में ऋषभदेव की पूजा करे। चाँदी का वृक्ष बनवाकर उसकी शाखा में स्वर्ण का पालना बांधे। उस पालने में सूत की गादी रखे। उस पर स्वर्ण की पुतली बनवाकर सुलाए। पंद्रह-पंद्रह पकवान एवं फल चढ़ाए। पंद्रह माह तक तप की तिथियों पर नए-नए नैवेद्य पकवान एवं फल आदि परमात्मा के समक्ष चढ़ाए। संघवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से सर्व दुःखों का नाश होता है। यह तप श्रावकों को करने योग्य आगाढ़-तप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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